हम सबका घर
नरेन्द्र कोहली
नरेन्द्र कोहली की लम्बी कहानी "हम सबका घर" पराग बाल पत्रिका (1991) में धारावाहिक के रूप में प्रकाशित हो चुकी है , प्रस्तुत है उस कहानी का प्रारंभिक अंश ।
वे लोग अपने नए मकान में रहने के लिए आ गए थे।
इससे पूर्व राजा ने केवल यह सुन ही रखा था कि उनका अपना मकान बन रहा है। मां, पिताजी और भैया के साथ वह दो-एक बार यहां आया भी था। उसे यह तो लगा था कि यहां कुछ बन रहा है, क्योंकि वहां ईंटें थीं, सीमेंट था, रेत थी, रोड़ी थी, कुछ मिस्त्री थे और बहुत सारे मज़दूर भी थे। पर उसकी समझ में यह कभी नहीं आया कि यह उनका घर कैसे हो सकता है। तब तक तो उसमें एक भी कमरा नहीं था। कहीं दीवार थी तो छत नहीं थी। कहीं छत थी तो दरवाज़ा नहीं था। वह उसे घर-वर नहीं लगा था। वह तो ऐसा ही कोई स्थान था, जहां बच्चों को लुका-छिपी इत्यादि खेल खेलने में सुविधा होती है। वह तो यही मानता था कि जैसे फुटबॉल खेलने के लिए मैदान होता है, तैरने के लिए तालाब होता है, उसी प्रकार लुका-छिपी खेलने के लिए ऐसे स्थान होते हैं, जो ऊबड़-खाबड़ होते हैं, और जहां छिपने के लिए ईंट-रोड़ी के ढेर होते हैं।
ऐसे अवसरों पर अपने बनते हुए मकान को देखकर जब भी वे लोग घर लौटते थे, तो राजा और मुन्ना भैया में ज़ोर की बहस होती थी। मुन्ना उसे बताता था कि उनके नए मकान में उनके लिए अलग से एक कमरा होगा। उस कमरे में एक बड़ी अलमारी होगी, जिसमें वे लोग अपने कपड़े रख सकेंगे। वह कमरा उनका होगा। वह अलमारी भी उनकी होगी। उसमें मां या पिताजी की कोई भी वस्तु नहीं रखी जाएगी। वे लोग उन्हें इस बात के लिए न डांट सकेंगे, न टोक सकेंगे कि उन लोगों ने अपने कमरे को इस प्रकार क्यों फैला रखा है... मुन्ना तो यह भी बताता था कि उसमें उनकी पुस्तकों के लिए भी एक अलग अलमारी होगी, किंतु राजा को इन चीज़ों का कभी विश्वास नहीं हुआ था। उसे अपने रहने लायक न वहां कोई कमरा दिखाई दिया था और न ही अलमारी। वह मन-ही-मन हंसता था कि कहीं भैया उस खूंटी को तो अपनी अलमारी नहीं मानता जिस पर मिस्त्री ने अपनी कमीज़ टांग रखी थी।
सबसे अधिक मतभेद तो उनका उस दिन हुआ था, जिस दिन भैया ने लौटते हुए उसे बताया था कि उस घर में उनके लिए एक छोटा-सा तरणताल भी बनेगा। राजा खूब हंसा था... तरणताल ! भैया भी मज़ाक करने में बहुत चतुर हैं, किंतु तरणताल के लिए वहां जगह ही कहां है ?
उसके लिए तो कितनी बड़ी जगह घेरी जाती है, कितनी गहरी खुदाई की जाती है, कितना सारा पानी उसमें भरा जाता है, पर उनके अपने घर में तो उसमें से कुछ भी नहीं था। फिर भी भैया अपनी बात पर अड़ा रहा... मकान बन जाएगा, तो स्वयं देख लेना।
बीच में एक लंबे समय तक वे लोग यहां नहीं आए थे। परीक्षाओं की तैयारी में राजा और मुन्ना दोनों को ही अवकाश नहीं मिला था कि वे लोग यहां आ सकते। पिताजी ने भी कभी उन्हें साथ आने का आग्रह तो नहीं ही किया, इसकी इच्छा तक प्रकट नहीं की। पहले वे छोटी-छोटी बातों की चर्चा करते थे और कितने प्रसन्न दिखाई देते थे। वे चाहते थे कि मां तथा राजा और मुन्ना जाकर वह सब कुछ देखें, जो वे बनवा रहे हैं और उसकी प्रशंसा भी करें, किंतु अब उनका दृष्टिकोण ही बदल गया था। अब वे कहने लगे थे कि इस समय मकान के निर्माण संबंधी बहुत सारे निर्णय करने पड़ते हैं। उसके लिए तत्काल अपनी राय देनी होती है। अपनी राय देने के लिए कुछ बुद्धि चाहिए तथा कुछ अनुभव। वे सबको साथ ले जाते हैं, तो वहां एक मतभेद खड़ा हो जाता है और वे लोग किसी निष्कर्ष तक पहुँचने में उनकी सहायता करने के स्थान पर कठिनाई उत्पन्न कर देते हैं। उससे मकान के निर्माण में विलंब होता है और उनकी दिक्कतें बढ़ जाती हैं।
घर में किसी ने भी आग्रह नहीं किया कि वे उन्हें अवश्य साथ ले चलें। परिणाम यह हुआ कि वे लोग इतने दिनों तक आए ही नहीं।
और अब जब मकान बनकर पूरा हो गया और साथ-ही-साथ राजा और मुन्ना दोनों की परीक्षाएं भी समाप्त हो गईं, तो न केवल उन्हें अवकाश मिल गया वरन् उनको परीक्षा की तैयारी करवाने वाली मां भी खाली हो गईं। अब बनते हुए मकान को देखने की कोई बात नहीं थी। यहां तो मकान पूरा बन चुका था। राजा और मुन्ना अपनी परीक्षा के पर्चे पूरे करते रहे थे और पिताजी यहां मकान बनवाने ‘प्रैक्टिकल’ परीक्षा देते रहे थे। और अब तो वे लोग यहां रहने ही आ गए थे।
आगे-आगे उनकी गाड़ी रुकी और पीछे-पीछे सामान ढोने वाला ट्रक आ पहुँचा। उसके पीछे एक और टैंपों को भी होना चाहिए था, पर वह शायद कहीं अटक गया था।
राजा ने गाड़ी से बाहर निकलकर रैंप पर खड़े होकर देखा—अरे ! यह तो सचमुच पूरा मकान बन गया था। यहां रैंप पर खड़े होकर तो उसमें कोई दिखाई नहीं देता था। जहां पहले खिड़कियां, दरवाज़े, छत और फ़र्श तक नहीं थे, वहां अब सब कुछ के साथ-साथ गेट और रैंप भी था। वह इस रैंप पर अपनी गेंद के साथ मनमाने ढंग से खेल सकता था। अब यहां उनका कोई मालिक-मकान नहीं था, जो सदा टोकता रहता कि वह रैंप गंदा कर रहा है या उसकी गेंद कहीं इधर-उधर जो गिरी है या उसका कोई गमला टूट गया है... यहां तो वह अपने गेट पर चढ़कर भी ख़ूब ज़ोर-ज़ोर से झूलेगा। पिताजी उसे कभी नहीं रोकेंगे। पिछले मकान में, जहाँ वह किराये पर रहते थे, पिताजी ने उसे गेट पर झूलने से कभी मना नहीं किया था; किंतु वह बुड्ढा मकान-मालिक और उसकी सदा ही सबसे लड़ते रहने वाली पत्नी, उसे कुछ भी मनमाना करने की अनुमति नहीं देते थे।
सहसा राजा के मन में आया कि वह तो बाहर गेट और रैंप पर ही अटक गया है। उसे घर के भीतर जाकर वह कमरा भी तो देखना चाहिए, जो भैया के अनुसार पिताजी ने उन दोनों के लिए बनवाया है। मज़ा तो तब आए जब भैया से पहले जाकर वह उस अलमारी में अपना ताला लगा दे, जो पिताजी ने दोनों के लिए बनवाई है। भैया टापता रह जाएगा और कुछ भी नहीं कर सकेगा।
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