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Thursday, January 25, 2018

साइकिल की सवारी , पण्डित सुदर्शन


साइकिल की सवारी 
पण्डित सुदर्शन 



भगवान ही जानता है कि जब मैं किसी को साइकिल की सवारी करते या हारमोनियम बजाते देखता हूँ तब मुझे अपने ऊपर कैसी दया आती है. सोचता हूँ, भगवान ने ये दोनों विद्याएँ भी  खूब बनाई है. एक से समय बचता है, दूसरी से समय कटता है. मगर तमाशा देखिए, हमारे प्रारब्ध में कलियुग की ये दोनों विद्याएँ नहीं लिखी गयीं. न साइकिल चला सकते हैं, न बाजा ही बजा सकते हैं. पता नहीं, कब से यह धारणा हमारे मन में बैठ गयी है कि हम सब कुछ कर सकते हैं, मगर ये दोनों काम नहीं कर सकते हैं.

‌शायद 1932 की बात है कि बैठे बैठे ख्याल आया कि चलो साइकिल चलाना सीख लें. और इसकी शुरुआत  यों हुई कि हमारे लड़के ने चुपचुपाते में यह विद्या सीख ली और हमारे सामने से सवार होकर निकलने लगा. अब आपसे क्या कहें कि लज्जा और घृणा के कैसे कैसे ख्याल हमारे मन में उठे. सोचा, क्या हमीं जमाने भर के फिसड्डी रह गये हैं! सारी दुनिया चलाती है, जरा जरा से लड़के चलाते हैं, मूर्ख और गँवार चलाते हैं, हम तो परमात्मा की कृपा से फिर भी पढ़े लिखे हैं. क्या हमीं नहीं चला सकेंगे? आखिर इसमें मुश्किल क्या है? कूदकर चढ़ गये और ताबड़तोड़ पाँव मारने लगे. और जब देखा कि कोई राह में खड़ा है तब टन टन करके घंटी बजा दी. न हटा तो क्रोधपूर्ण आँखों से उसकी तरफ़ देखते हुए निकल गए. बस, यही तो सारा गुर है इस लोहे की सवारी का. कुछ ही दिनों में सीख लेंगे. बस महाराज, हमने निश्चय कर लिया कि चाहे जो हो जाए, परवाह नहीं.
‌ दूसरे दिन हमने अपने फटे पुराने कपड़े तलाश किये और उन्हें ले जाकर श्रीमतीजी के सामने पटक दिया कि इनकी जरा मरम्मत तो कर दो.
‌श्रीमतीजी ने हमारी तरफ़ अचरज भरी दृष्टि से देखा और कहा "इन कपड़ों में अब जान ही कहा है कि मरम्मत करूँ! इन्हें तो फेंक दिया था. आप कहाँ से उठा लाए? वहीं जाकर डाल आइये."
‌हमने मुस्कुराकर श्रीमतीजी की तरफ़ देखा और कहा, " तुम हर समय बहस न किया करो. आखिर मैं इन्हें ढूँढ ढाँढ कर लाया हूँ तो ऐसे ही तो नहीं उठा लाया. कृपा करके इनकी मरम्मत कर डालो. "
‌मगर श्रीमतीजी बोलीं," पहले बताओ, इनका क्या बनेगा? "
‌हम चाहते थे कि घर में किसी को कानों कान खबर न हो और हम साइकिल सवार बन जाएँ. और इसके बाद जब इसके पंडित हो जाएँ तब एक दिन जहांगीर के मकबरे को जाने का निश्चय करें. घरवालों को तांगे में बिठा दें और कहें," तुम चलो हम दूसरे तांगे में आते हैं. " जब वे चले जाएँ तब साइकिल पर सवार होकर उनको रास्ते में मिलें.हमें साइकिल पर सवार देखकर उनलोगों की क्या हालत होगी! हैरान हो जाएंगे,आँखें मल-मल कर देखेंगे कि कहीं कोई और तो नहीं! परंतु हम गर्दन टेढ़ी करके दूसरी तरफ देखने लग जाएँगे,जैसे हमें कुछ मालूम ही नहीं है,जैसे यह सवारी हमारे लिए साधारण बात है.
झक मारकर बताना पड़ा कि रोज रोज ताँगे का खर्च मारे डालता है.साइकिल चलाना सीखेंगे.
श्रीमती जी ने बच्चे को सुलाते हुए हमारी तरफ देखा और मुस्कुराकर बोलीं,"मुझे तो आशा नहीं कि यह बेल आपसे मत्थे चढ़ सके.खैर यत्न करके देख लीजिए.मगर इन कपड़ो से क्या बनेगा?"
हमने जरा रौब से कहा-"आखिर बाइसिकिल से एक दो बार गिरेंगे या नहीं?और गिरने से कपडे फटेंगे या नहीं? जो मूर्ख हैं,वो नए कपड़ों का नुकसान कर बैठते हैं.जो बुद्धिमान हैं,वो पुराने कपड़ों से काम चलाते हैं.
मालूम होता है हमारी इस युक्ति का कोई जवाब हमारी स्त्री के पास न था, क्योंकि उन्होंने उसी समय मशीन मँगवाकर उन कपड़ों की मरम्मत शुरू कर दी.
हमने इधर बाज़ार जाकर जम्बक के दो डिब्बे खरीद लिए कि चोट लगते ही उसी समय इलाज किया जा सके.इसके बाद जाकर एक खुला मैदान तलाश किया, ताकि दूसरे दिन से साइकिल-सवारी का अभ्यास किया जा सके.
अब यह सवाल हमारे सामने था कि अपना उस्ताद किसे बनाएँ.इसी उधेड़बुन में बैठे थे कि तिवारी लक्ष्मीनारायण आ गए और बोले ," क्यों भाई हो जाए एक बाजी शतरंज की?"
हमने सिर हिलाकर जवाब दिया,"नहीं साहब! आज तो जी नहीं चाहता."
"क्यों?"
"यदि जी न चाहे तो क्या करें?"
यह कहते कहते हमारा गला भर आया.तिवारी जी का दिल पसीज गया.हमारे पास बैठकर बोले,"अरे भाई मामला क्या है? स्त्री से झगड़ा तो नहीं हो गया?"
हमने कहा,"तिवारी भैया,क्या कहें?सोचा था,लाओ, साइकिल की सवारी सीख लें.मगर अब कोई ऐसा आदमी दिखाई नहीं देता जो हमारी सहायता करें.बताओ, है कोई ऐसा आदमी तुम्हारे ख्याल में?”
तिवारी जी ने हमारी तरफ बेबसी की आँखों से ऐसे  देखा, मानों हमको कोई खजाना मिल रहा है और वे खाली हाथ रह जाते हैं.बोले,"मेरी मानों तो यह रोग न पालो.इस आयु में साइकिल पर चढ़ोगे?और यह भी कोई सवारियों में कोई सवारी है कि डंडे पर उकड़ूँ बैठे हैं और पाँव  चला रहे हैं.अजी लानत भेजो इस ख्याल पर आओ एक बाजी खेलें." मगर हमने भी कच्ची गोलियाँ नहीं खेली थी. साफ़ समझ गए कि तिवारी इर्ष्या की आग में फुंका जाता है.मुँह फुलाकर हमने कहा, "भाई तिवारी हम तो जरूर सीखेंगे. कोई आदमी बताओ."
"आदमी तो है ऐसा एक, मगर वह मुफ्त में नहीं सिखाएगा. फीस लेगा. दे सकोगे?"
"कितने दिन में सिखा देगा?"
'यही दस-बारह दिनों में!"
"और फीस क्या लेगा हमसे?"
"औरों से पचास लेता है.तुमसे बीस ले लेगा हमारी खातिर."
हमने सोचा दस दिन सिखाएगा और बीस रुपये लेगा. दस दिन बीस रुपये. बीस रुपये- दस दिन. अर्थात् दो रुपये रोजाना अर्थात् साठ रुपये महीना और वो भी केवल एक दो घण्टे के लिए. ऐसी तीन चार ट्यूशनें मिल जाएँ तो ढाई-तीन सौ रूपये मासिक हो जाएंगे. हमने तिवारी जी से तो इतना ही कहा कि जाओ जाकर मामला तय कर आओ,मगर जी में खुश हो रहे थे कि साइकिल चलाना सीख गये तो एक ट्रेनिंग स्कूल खोल दें और तीन-चार सौ रूपये मासिक कमाने लगे.
इधर तिवारी जी मामला तय करने गए इधर हमने यह शुभ समाचार जाकर श्रीमती जी को सुना दिया कि कुछ दिनों में हमलोग ऐसा स्कूल खोलने वाले हैं जिससे तीन-चार सौ रुपये मासिक आमदनी होगी.
श्रीमती जी बोली,"तुम्हारी इतनी आयु हो गयी मगर ओछापन न गया. पहले आप तो सीख लो,फिर स्कूल खोलना. मैं तो समझती हूँ कि तुम ही न सीख सकोगे दूसरों को सीखाना तो दूर की बात है."
हमने बिगड़कर कहा, "यह बड़ी बुरी बात है कि हर काम में टोक देती हो. हमसे बड़े बड़े सीख रहे हैं तो क्या हम न सीख सकेंगे? पहले तो शायद सीखते या न सीखते, पर अब तुमने टोका है तो जरूर सीखेंगे .तुम भी क्या कहोगी."
श्रीमती जी बोली," मैं तो चाहती हूँ कि तुम हवाई जहाज चलाओ. यह बाइसिकिल क्या चीज है? मगर तुम्हारे स्वभाव से डर लगता है. एक बार गिरोगे, तो देख लेना वहीं साइकिल फेंक-फाँककर चले आओगे."
इतने में तिवारी जी ने बाहर से आवाज दी. हमने बाहर जाकर देखा तो उस्ताद साहब खड़े थे. हमने शरीफ विद्यार्थियों के समान श्रद्धा से हाथ जोड़ का प्रणाम किया और चुपचाप खड़े हो गए.
तिवारी जी बोले,"यह तो बीस पर मान ही नहीं रहे थे. बड़ी मुश्किल से मनाया है. पेशगी लेंगे. कहते हैं ,पीछे कोई नहीं देता."
अरे भाई हम देंगे.दुनिया लाख बुरी है, मगर फिर भी भले आदमियों से खाली नहीं है.यह बस चलाना सीखा दें, फिर देखें, हम इनकी क्या क्या सेवा करते हैं."
मगर उस्ताद साहब नहीं माने.बोले,"फीस पहले लेंगे."
"और यदि आपने नहीं सिखाया तो?"
"नहीं सिखाया तो फीस लौटा देंगे."
"और यदि नहीं लौटाया तो?"
इस पर तिवारी जी ने कहा, "अरे साहब! क्या यह तिवारी मर गया है? शहर में रहना हराम कर दूँ, बाजार में निकलना बंद कर दूँ. फीस लेकर भाग जाना कोई हँसी-खेल है?"
जब हमें विश्वास हो गया कि इसमें कोई धोखा नहीं है, तब हमने फीस के रूपये लाकर उस्ताद को भेंट कर दिए और कहा,"उस्ताद कल सवेरे ही आ जाना. हम तैयार रहेंगे. इस काम के लिए कपड़े भी बनवा लिए हैं. अगर गिर पड़े तो चोट पर लगाने के लिए जम्बक भी खरीद लिया है. और हाँ हमारे पड़ोस में जो मिस्त्री रहता है, उससे साइकिल भी माँग ली है. आप सवेरे ही चले आएँ तो हरि नाम लेकर शुरू कर दें."
तिवारी जी और उस्ताद जी ने हमें हर तरह से तसल्ली दी और चले गए. इतने में हमें याद आया कि एक बात कहना भूल गए. नंगे पाँव भागे और उन्हें बाजार में जाकर पकड़ा. वे हैरान थे. हमने हाँफते-हाँफते कहा, “उस्ताद हम शहर के पास नहीं सीखेंगे,लारेंसबाग़ में जो मैदान है, वहां सीखेंगे. वहां एक तो भूमि नरम है, चोट कम लगती है .दूसरे वहाँ कोई देखता नहीं है."
अब रात को आराम की नींद कहाँ? बार बार चौंकते थे और देखते थे कि कहीं सूरज तो नहीं निकल आया. सोते थे तो साइकिल के सपने आते थे.एक बार देखा कि हम साइकिल से गिरकर जख्मी हो गए हैं. साइकिल आप से आप हवा में चल रही है और लोग हमारी तरफ आँखें फाड़-फाड़ के देख रहे थे.
अब आँखें खुली तो दिन निकल आया था. जल्दी से जाकर वो पुराने कपड़े पहन लिए,जम्बक का डिब्बा साथ में ले लिया और नौकर को भेज कर मिस्त्री से साइकिल मँगवा ली. इसी समय उस्ताद साहब भी आ गए और हम भगवान का नाम लेकर लारेंसबाग की ओर चले. लेकिन अभी घर से निकले ही थे कि एक बिल्ली रास्ता काट गई और लड़के ने छींक दिया. क्या कहें कि हमें कितना क्रोध आया उस नामुराद बिल्ली पर और उस शैतान लड़के पर! मगर क्या करते? दांत पीसकर रहे गये. एक बार फिर भगवान का पावन नाम लिया और आगे बढ़े. पर बाजार में पहुँच कर देखते हैं कि हर आदमी हमारी तरफ देख रहा है और हँस रहा है. अब हम हैरान थे कि बात क्या है. सहसा हमने देखा कि हमने जल्दी और घबराहट में पाज़ामा और अचकन दोनों उलटे पहन लिए हैं और लोग इसी पर हँस रहे हैं.
सर मुड़ाते ही ओले पड़े.
हमने उस्ताद से माफ़ी माँगी और घर लौट आए अर्थात् हमारा पहला दिन मुफ्त में गुजरा.
दूसरे दिन फिर निकले. रास्ते में उस्ताद साहब बोले,"मैं एक गिलास लस्सी पी लूँ . आप जरा साइकिल को थामिए."
उस्ताद साहब लस्सी पीने लगे तो हमने साइकिल के पुर्जों की ऊपर-नीचे परीक्षा शुरू कर दी. फिर कुछ जी में आया तो उसका हैंडल पकड़ कर चलने लगे. मगर दो ही कदम गए होंगे कि ऐसा मालूम हुआ जैसे साइकिल हमारे सीने पर चढ़ी आती है.
इस समय हमारे सामने गम्भीर प्रश्न यह था कि क्या करना चाहिए? युद्ध क्षेत्र में डटे रहें या हट जाएँ? सोच विचार के बाद यही निश्चय हुआ कि यह लोहे का घोड़ा है. इसके सामने हम क्या चीज हैं. बड़े-बड़े वीर योद्धा भी ठहर नही सकते. इसलिए हमने साइकिल छोड़ दी और भगोड़े सिपाही बनकर मुड़ गये. पर दूसरे ही क्षण साइकिल पूरे जोर से हमारे पाँव पर गिर गयी और हमारी रामदुहाई बाजार के एक सिरे से दूसरे सिरे तक गूँजने लगी. उस्ताद लस्सी छोड़कर दौड़े आये और अन्य दयावान लोग भी जमा हो गए. सबने मिलकर हमारा पाँव साइकिल से निकाला. भगवान के एक भक्त ने जम्बक का डिब्बा भी उठाकर हमारे हाथ में दे दिया.दूसरे ने हमारी बगलों में हाथ डालकर हमें उठाया और सहानुभूति से पूछा, "चोट तो नहीं आयी? जरा दो चार कदम चलिए नहीं तो लहू जम जाएगा."
इस तरह दूसरे दिन भी हम और हमारी साइकिल दोनों अपनी घर से थोड़ी दूर पर जख्मी हो गए. हम लंगड़ाते हुए घर लौट आये और साइकिल ठीक होने के लिए मिस्त्री के दुकान पर भेज दी.
मगर हमारे वीर हृदय का साहस और धीरज तो देखिये.अब भी मैदान में डटे रहे.कई बार गिरे,कई बार शहीद हुए.घुटने तुड़वाये,कपड़े फड़वाये पर क्या मजाल जो जी छूट जाए.आठ-नौ दिनों में साइकिल चलाना सीख गए थे.लेकिन अभी उसपर चढ़ना नहीं आता था.कोई परोपकारी पुरुष सहारा देकर चढ़ा देता तो फिर लिए जाते थे.हमारे आनंद की कोई सीमा न थी.सोचा मार लिया मैदान हमने.दो चार दिन में पूरे मास्टर बन जाएंगे, इसके बाद प्रोफेसर प्रिंसिपल,इसके बाद ट्रेनिंग कॉलेज फिर तीन-चार सौ रुपये मासिक.तिवारी जी देखेंगे और ईर्ष्या से जलेंगे.
उस दिन उस्ताद जी ने हमें साइकिल पर चढ़ा दिया और सड़क पर छोड़ दिया कि ले जाओ,अब तुम सीख गये.

अब हम साइकिल चलाते थे और दिल ही दिल फूले न समाते थे.मगर हाल यह था कि कोई आदमी सौ गज के फासले पर होता तो हम गला फाड़-फाड़कर चिल्लाना शुरू कर देते-साहब! बायीं तरफ हट जाइये.दूर फासले पर कोई गाड़ी दिख जाती तो हमारे प्राण सूख जाते.उस समय हमारे मन की जो दशा होती वो परमेश्वर ही जानता है.जब गाड़ी निकल जाती तब कहीं  जाकर हमारी जान में जान आती. सहसा सामने से तिवारी जी आते हुए दिखे.हमने उन्हें भी दूर से ही अल्टीमेटम दिया कि तिवारी जी, बायीं तरफ हो जाओ, वरना साइकिल तुम्हारे ऊपर चढ़ा देंगे.
तिवारी जी ने अपनी छोटी छोटी आँखों से हमारी तरफ देखा और मुस्कुराकर कहा-"जरा एक बात तो सुनते जाओ"
हमने एक बार हैंडल की तरफ, दूसरी बार तिवारी जी की तरफ़ देखकर कहा,"इस समय बात सुन सकते हैं?देखते नहीं हो साइकिल पर सवार हैं."
तिवारी जी बोले, "तो क्या जो साइकिल चलाते हैं, वो किसी की बात नहीं सुनते हैं ? बड़ी जरुरी बात है, जरा उतर आओ.
हमने लड़खड़ाती हुई साइकिल को संभालते हुए जवाब दिया," उतर आएंगे तो चढ़ायेगा कौन?अभी चलाना सीखा है चढ़ना नहीं सीखा."
तिवारी जी चिल्लाते ही रह गए, हम आगे निकल गए.
इतने में सामने से एक ताँगा आता दिखाई दिया.हमने उसे भी दूर से ही डाँट दिया, "बायीं तरफ भाई.अभी नए चलाने वाले हैं."
ताँगा बायीं तरफ हो गया.हम अपने रास्ते चले जा रहे थे.एकाएक पता नहीं घोड़ा भड़क उठा या ताँगेवाले को शरारत सूझी ,जो भी हो,ताँगा हमारे सामने आ गया.हमारे हाथ पाँव  फूल गए.ज़रा सा हैंडल घुमा देते तो हम दूसरी तरफ निकल जाते.मगर बुरा समय आता है तो बुद्धि पहले ही भ्रष्ट हो जाती है.उस समय हमें ख्याल ही न आया कि हैंडल घुमाया भी जा सकता है.फिर क्या था, हम और हमारी साइकिल दोनों ही ताँगे के नीचे आ गए और हम बेहोश हो गए.
जब हम होश में आये तो हम अपने घर में थे और हमारी देह पर कितनी ही पट्टियां बंधी थी.हमें होश में देखकर श्रीमतीजी ने कहा, "क्यों? अब क्या हाल है? मैं कहती न थी, साइकिल चलाना न सीखो! उस समय तो किसी की सुनते ही न थे."
हमने सोचा, लाओ सारा इल्जाम तिवारी जी पर लगा दें और आप साफ़ बच जाएँ. बोले, "यह सब तिवारी जी की शरारत है."
श्रीमती जी ने मुस्कुराकर जवाब दिया, "यह तो तुम उसको चकमा दो जो कुछ जानता न हो.उस ताँगे पर मैं ही तो बच्चों को लेकर घूमने निकली थी कि चलो सैर भी कर आएंगे और तुम्हें साइकिल चलाते भी देख आएँगे.
हमने निरुत्तर होकर आँखें बंद कर लीं.

उस दिन के बाद फिर कभी हमने साइकिल को  हाथ न लगाया.

Friday, July 4, 2014

पंडित सुदर्शन जी की कहानी "हार की जीत" आपने कभी ना कभी अपनी हिंदी की पाठ्यपुस्तक में पढ़ी ही होगी । मैंने इस कहानी की सॉफ्ट कॉपी एक अन्य साइट से आभार सहित ली है। उसी साइट से मुझे ये जानकारी हुई कि "हार की जीत" पंडित जी की पहली कहानी है और १९२० में सरस्वती नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी।
हार की जीत 
सुदर्शन 

माँ को अपने बेटे और किसान को अपने लहलहाते खेत देखकर जो आनंद आता है, वही आनंद बाबा भारती को अपना घोड़ा देखकर आता था। भगवद्-भजन से जो समय बचता, वह घोड़े को अर्पण हो जाता। वह घोड़ा बड़ा सुंदर था, बड़ा बलवान। उसके जोड़ का घोड़ा सारे इलाके में न था। बाबा भारती उसे ‘सुल्तान’ कह कर पुकारते, अपने हाथ से खरहरा करते, खुद दाना खिलाते और देख-देखकर प्रसन्न होते थे। उन्होंने रूपया, माल, असबाब, ज़मीन आदि अपना सब-कुछ छोड़ दिया था, यहाँ तक कि उन्हें नगर के जीवन से भी घृणा थी। अब गाँव से बाहर एक छोटे-से मन्दिर में रहते और भगवान का भजन करते थे। “मैं सुलतान के बिना नहीं रह सकूँगा”, उन्हें ऐसी भ्रान्ति सी हो गई थी। वे उसकी चाल पर लट्टू थे। कहते, “ऐसे चलता है जैसे मोर घटा को देखकर नाच रहा हो।” जब तक संध्या समय सुलतान पर चढ़कर आठ-दस मील का चक्कर न लगा लेते, उन्हें चैन न आता।
खड़गसिंह उस इलाके का प्रसिद्ध डाकू था। लोग उसका नाम सुनकर काँपते थे। होते-होते सुल्तान की कीर्ति उसके कानों तक भी पहुँची। उसका हृदय उसे देखने के लिए अधीर हो उठा। वह एक दिन दोपहर के समय बाबा भारती के पास पहुँचा और नमस्कार करके बैठ गया। बाबा भारती ने पूछा, “खडगसिंह, क्या हाल है?”
खडगसिंह ने सिर झुकाकर उत्तर दिया, “आपकी दया है।”
“कहो, इधर कैसे आ गए?”
“सुलतान की चाह खींच लाई।”
“विचित्र जानवर है। देखोगे तो प्रसन्न हो जाओगे।”
“मैंने भी बड़ी प्रशंसा सुनी है।”
“उसकी चाल तुम्हारा मन मोह लेगी!”
“कहते हैं देखने में भी बहुत सुँदर है।”
“क्या कहना! जो उसे एक बार देख लेता है, उसके हृदय पर उसकी छवि अंकित हो जाती है।”
“बहुत दिनों से अभिलाषा थी, आज उपस्थित हो सका हूँ।”
बाबा भारती और खड़गसिंह अस्तबल में पहुँचे। बाबा ने घोड़ा दिखाया घमंड से, खड़गसिंह ने देखा आश्चर्य से। उसने सैंकड़ो घोड़े देखे थे, परन्तु ऐसा बाँका घोड़ा उसकी आँखों से कभी न गुजरा था। सोचने लगा, भाग्य की बात है। ऐसा घोड़ा खड़गसिंह के पास होना चाहिए था। इस साधु को ऐसी चीज़ों से क्या लाभ? कुछ देर तक आश्चर्य से चुपचाप खड़ा रहा। इसके पश्चात् उसके हृदय में हलचल होने लगी। बालकों की-सी अधीरता से बोला, “परंतु बाबाजी, इसकी चाल न देखी तो क्या?”
दूसरे के मुख से सुनने के लिए उनका हृदय अधीर हो गया। घोड़े को खोलकर बाहर गए। घोड़ा वायु-वेग से उडने लगा। उसकी चाल को देखकर खड़गसिंह के हृदय पर साँप लोट गया। वह डाकू था और जो वस्तु उसे पसंद आ जाए उस पर वह अपना अधिकार समझता था। उसके पास बाहुबल था और आदमी भी। जाते-जाते उसने कहा, “बाबाजी, मैं यह घोड़ा आपके पास न रहने दूँगा।”
बाबा भारती डर गए। अब उन्हें रात को नींद न आती। सारी रात अस्तबल की रखवाली में कटने लगी। प्रति क्षण खड़गसिंह का भय लगा रहता, परंतु कई मास बीत गए और वह न आया। यहाँ तक कि बाबा भारती कुछ असावधान हो गए और इस भय को स्वप्न के भय की नाईं मिथ्या समझने लगे। संध्या का समय था। बाबा भारती सुल्तान की पीठ पर सवार होकर घूमने जा रहे थे। इस समय उनकी आँखों में चमक थी, मुख पर प्रसन्नता। कभी घोड़े के शरीर को देखते, कभी उसके रंग को और मन में फूले न समाते थे। सहसा एक ओर से आवाज़ आई, “ओ बाबा, इस कंगले की सुनते जाना।”
आवाज़ में करूणा थी। बाबा ने घोड़े को रोक लिया। देखा, एक अपाहिज वृक्ष की छाया में पड़ा कराह रहा है। बोले, “क्यों तुम्हें क्या कष्ट है?”
अपाहिज ने हाथ जोड़कर कहा, “बाबा, मैं दुखियारा हूँ। मुझ पर दया करो। रामावाला यहाँ से तीन मील है, मुझे वहाँ जाना है। घोड़े पर चढ़ा लो, परमात्मा भला करेगा।”
“वहाँ तुम्हारा कौन है?”
“दुगार्दत्त वैद्य का नाम आपने सुना होगा। मैं उनका सौतेला भाई हूँ।”
बाबा भारती ने घोड़े से उतरकर अपाहिज को घोड़े पर सवार किया और स्वयं उसकी लगाम पकड़कर धीरे-धीरे चलने लगे। सहसा उन्हें एक झटका-सा लगा और लगाम हाथ से छूट गई। उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब उन्होंने देखा कि अपाहिज घोड़े की पीठ पर तनकर बैठा है और घोड़े को दौड़ाए लिए जा रहा है। उनके मुख से भय, विस्मय और निराशा से मिली हुई चीख निकल गई। वह अपाहिज डाकू खड़गसिंह था।बाबा भारती कुछ देर तक चुप रहे और कुछ समय पश्चात् कुछ निश्चय करके पूरे बल से चिल्लाकर बोले, “ज़रा ठहर जाओ।”
खड़गसिंह ने यह आवाज़ सुनकर घोड़ा रोक लिया और उसकी गरदन पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, “बाबाजी, यह घोड़ा अब न दूँगा।”
“परंतु एक बात सुनते जाओ।” खड़गसिंह ठहर गया।
बाबा भारती ने निकट जाकर उसकी ओर ऐसी आँखों से देखा जैसे बकरा कसाई की ओर देखता है और कहा, “यह घोड़ा तुम्हारा हो चुका है। मैं तुमसे इसे वापस करने के लिए न कहूँगा। परंतु खड़गसिंह, केवल एक प्रार्थना करता हूँ। इसे अस्वीकार न करना, नहीं तो मेरा दिल टूट जाएगा।”
“बाबाजी, आज्ञा कीजिए। मैं आपका दास हूँ, केवल घोड़ा न दूँगा।”
“अब घोड़े का नाम न लो। मैं तुमसे इस विषय में कुछ न कहूँगा। मेरी प्रार्थना केवल यह है कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट न करना।”
खड़गसिंह का मुँह आश्चर्य से खुला रह गया। उसका विचार था कि उसे घोड़े को लेकर यहाँ से भागना पड़ेगा, परंतु बाबा भारती ने स्वयं उसे कहा कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट न करना। इससे क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है? खड़गसिंह ने बहुत सोचा, बहुत सिर मारा, परंतु कुछ समझ न सका। हारकर उसने अपनी आँखें बाबा भारती के मुख पर गड़ा दीं और पूछा, “बाबाजी इसमें आपको क्या डर है?”
सुनकर बाबा भारती ने उत्तर दिया, “लोगों को यदि इस घटना का पता चला तो वे दीन-दुखियों पर विश्वास न करेंगे।” यह कहते-कहते उन्होंने सुल्तान की ओर से इस तरह मुँह मोड़ लिया जैसे उनका उससे कभी कोई संबंध ही नहीं रहा हो।
बाबा भारती चले गए। परंतु उनके शब्द खड़गसिंह के कानों में उसी प्रकार गूँज रहे थे। सोचता था, कैसे ऊँचे विचार हैं, कैसा पवित्र भाव है! उन्हें इस घोड़े से प्रेम था, इसे देखकर उनका मुख फूल की नाईं खिल जाता था। कहते थे, “इसके बिना मैं रह न सकूँगा।” इसकी रखवाली में वे कई रात सोए नहीं। भजन-भक्ति न कर रखवाली करते रहे। परंतु आज उनके मुख पर दुख की रेखा तक दिखाई न पड़ती थी। उन्हें केवल यह ख्याल था कि कहीं लोग दीन-दुखियों पर विश्वास करना न छोड़ दे। ऐसा मनुष्य, मनुष्य नहीं देवता है।
रात्रि के अंधकार में खड़गसिंह बाबा भारती के मंदिर पहुँचा। चारों ओर सन्नाटा था। आकाश में तारे टिमटिमा रहे थे। थोड़ी दूर पर गाँवों के कुत्ते भौंक रहे थे। मंदिर के अंदर कोई शब्द सुनाई न देता था। खड़गसिंह सुल्तान की बाग पकड़े हुए था। वह धीरे-धीरे अस्तबल के फाटक पर पहुँचा। फाटक खुला पड़ा था। किसी समय वहाँ बाबा भारती स्वयं लाठी लेकर पहरा देते थे, परंतु आज उन्हें किसी चोरी, किसी डाके का भय न था। खड़गसिंह ने आगे बढ़कर सुलतान को उसके स्थान पर बाँध दिया और बाहर निकलकर सावधानी से फाटक बंद कर दिया। इस समय उसकी आँखों में नेकी के आँसू थे। रात्रि का तीसरा पहर बीत चुका था। चौथा पहर आरंभ होते ही बाबा भारती ने अपनी कुटिया से बाहर निकल ठंडे जल से स्नान किया। उसके पश्चात्, इस प्रकार जैसे कोई स्वप्न में चल रहा हो, उनके पाँव अस्तबल की ओर बढ़े। परंतु फाटक पर पहुँचकर उनको अपनी भूल प्रतीत हुई। साथ ही घोर निराशा ने पाँव को मन-मन भर का भारी बना दिया। वे वहीं रूक गए। घोड़े ने अपने स्वामी के पाँवों की चाप को पहचान लिया और ज़ोर से हिनहिनाया। अब बाबा भारती आश्चर्य और प्रसन्नता से दौड़ते हुए अंदर घुसे और अपने प्यारे घोड़े के गले से लिपटकर इस प्रकार रोने लगे मानो कोई पिता बहुत दिन से बिछड़े हुए पुत्र से मिल रहा हो। बार-बार उसकी पीठपर हाथ फेरते, बार-बार उसके मुँह पर थपकियाँ देते। फिर वे संतोष से बोले, “अब कोई दीन-दुखियों से मुँह न मोड़ेगा।”

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