दोस्तों प्रस्तुत लघुकथा 1984 में पराग पत्रिका के अक्टूबर अंक में प्रकाशित हुई थी।
थोड़ी सी महानता
अरविंद कुमार गर्ग
अजय और मुझमें केवल एक चीज़ का अंतर था। दुबला पतला मैं भी था , वह भी। चश्मा मैं भी लगता था और वह भी। पर जहाँ मैं चाय का दीवाना था , वह उसका कट्टर विरोधी। मैं जानता था कि चाय पीने के लिए उसे डॉक्टर ने मना किया हुआ है। नकसीर की बीमारी के कारण , पर फिर भी कभी कभी मैं उससे जिद कर बैठता था और जब वह हमेशा की तरह मना करता तो मैं नाराज़ हो उठता था।
उस दिन शायद रविवार था। बैठे बैठे अचानक प्रोग्राम बन गया की साइकिलों पर सरधना चला जाए , वहां का प्रसिद्ध गिरजाघर देखने। बस फिर क्या था ! घरवालों से कहा साइकिलें उठाईं और चल दिए। बातें करते हुए मस्ती में चले जा रहे थे हम दोनों। अचानक बायीं तरफ से एक आवाज़ आयी ,"नमस्ते बाबू जी। "
मैंने चौंक कर देखा -- एक तीस - पैंतीस वर्ष का आदमी हाथ जोड़े खड़ा है। मैं तो उसे पहचानता नहीं था पर अजय शायद उससे परिचित था, क्योंकि उस पर निगाह पड़ते ही उसके मुंह से निकला ," अरे नन्द किशोर , तुम यहां कैसे ?"
"मेरा तो घर ही यहां है बाबू जी। " उसने बड़ी विनम्रता से कहा। फिर सामने एक झोपड़ी की तरफ इशारा करते हुए बोला ,"वो देखिये सामने , आइये। "
इससे पहले की मैं कुछ कहूँ अजय उस व्यक्ति के साथ चल दिया. झोपड़ी के आगे एक टूटी - सी खाट पड़ी थी। अपनी - अपनी साइकिलें खड़ी कर के हम दोनों खाट पर बैठ गए। अभी हमें नन्द किशोर से बातें करते पांच मिनट ही गुजरे होंगे की झोपड़ी के अंदर से एक लड़का दो प्यालों में चाय ले आया। मुझे उम्मीद थी की अजय चाय वापिस भिजवा देगा , पर मेरी आशा के विपरीत उसने चाय का कप थाम लिया और मेरे देखते देखते ही कप खली कर दिया।
दो - चार मिनट बैठ कर हम चल दिए। नन्द किशोर की झोपड़ी से जब हम थोड़ा दूर आ गए तो मैंने तनिक नाराजगी भरे स्वर में कहा ," यार हमारे यहां तो तुम चाय पीते नहीं हो और यहां गटागट पी गये। "
अजय ने मेरी तरफ एक क्षण देखा और धीरे से बोला , " तुम्हें शायद पता नहीं , यह हमारा मेहतर है। अगर मैं उसके यहां चाय पीने से मना करता , तो वह यही समझता की शायद मैं उसके भंगी होने के कारण ही मना कर रहा हूँ। उसके दिल को ठेस ना पहुंचे इसलिए मैंने आज वहां चाय पी है। "
मुझे लगा अजय और मुझमें एक अंतर है --- मैं उससे बौना हूँ ................ बहुत बौना।
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