बाल साहित्यकार डॉ. श्रीप्रसाद की जयंती पर विशेष
डॉ. श्रीप्रसाद जी का जन्म ५ जनवरी १९३२ को पराना गांव, आगरा , उत्तर प्रदेश में हुआ था। ५ जनवरी २०१५ को उनकी ८३ वीं जयंती मनायी गयी।
अमर उजाला से साभार
मासूमियत को जिंदा रखने वाले रचनाकार थे श्रीप्रसाद
अमर उजाला ब्यूरो
वाराणसी। बाल साहित्यकार श्रीप्रसाद की 83वीं जयंती पर सोमवार को पराड़कर भवन में साहित्यकारों का जमावड़ा लगा। छात्र-छात्राओं ने उनकी 10 कविताओं का सस्वर पाठ किया। इस मौके पर साहित्यकारों ने कहा कि वो बाल मन के चितेरे और मासूमियत को जिंदा रखने वाले साहित्यकार थे। यह कार्यक्रम बाल रंग मंडल की ओर से किया गया था।
पराड़कर भवन में उनके चित्र पर माल्यार्पण के बाद साहित्यकार डॉ. जितेंद्र नाथ मिश्र ने कहा कि श्रीप्रसाद ने अपने साहित्य सृजन से पीढ़ी का निर्माण किया। उनका जीवन बच्चों के लिए समर्पित था। महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के प्रोफेसर श्रद्धानंद ने कहा कि बच्चों में नैतिक मूल्यों, संस्कारों के रोपण के साथ ही चरित्र के निर्माण में श्रीप्रसाद के साहित्य का अहम योगदान है। उन्होंने सर्वाधिक बाल कहानियां और शिशु गीत लिखे हैं। वो मासूमियत को जिंदा रखने वाले रचनाकार थे। डॉ.राम सुधार सिंह ने उन्हें बाल साहित्य का एकनिष्ठ साधक बताया। कहा कि बड़ों के लिए कठिन साहित्य लिखना तो आसान है लेकिन बच्चों की समझ के अनुरूप सरल साहित्य की रचना बहुत मुश्किल काम है। इस मौके पर नरोत्तम शिल्पी, अमिताभ शंकर राय, डॉ. अत्रि भारद्वाज, डॉ. हेतराम कछवाह, डॉ. उषा, विनोद राव पाठक, सुदामा पांडेय समेत तमाम रचनाकार उपस्थित थे। संचालन सलीम राजा ने और धन्यवाद प्रकाश गौतम अरोड़ा ने किया। बीएचयू एकेडमिक स्टाफ कालेज के निदेशक प्रो. आनंद वर्धन शर्मा ने अतिथियों का स्वागत किया।
बाल साहित्यकार की 83वीं जयंती पर लगा जमावड़ा
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डॉ. श्रीप्रसाद जी से मेरा परिचय पराग पत्रिका के माध्यम से हुआ , जब मैंने १९८८ में उनकी पराग में प्रकाशित कहानी "यह सच है " पढ़ी। कहानी कहने की शैली बहुत ही सरल लगी कि दस साल की उम्र में समझ में भी आयी और दिल को छू भी गयी।
यह सच है
डॉ. श्रीप्रसाद
बात सिर्फ पंद्रह साल पहले की है, आगरा जिले की एक तहसील है बाह। इसी तहसील के गाँव नगला शाह में रामदीन पंडित रहते थे। पंडित जी बड़े मौजी स्वभाव के थे। बच्चो के साथ खेलना - गाना और गाँव की रामलीला में भाग लेना उनका मुख्या शौक था। बच्चों को वे घर पर पढ़ाते भी थे। बच्चे उन्हें चाचा कहते थे।
गाँव का कोई बच्चा या बूढ़ा ऐसा नहीं था पंडित को न जानता हो। कहीं झगड़ा हो रहा हो, रामदीन पंडित झगड़ा निपटा हैं, किसी के यहां गृह प्रवेश है या विवाह है , रामदीन पंडित मंत्र पढ़ रहे हैं बीमार पड़ा है रामदीन पंडित दवा दे रहे हैं। उन्हें आयुर्वेद का कामचलाऊ ज्ञान भी था।
बरसात में गाँव के रास्ते ख़राब हो जाते हैं। खंदक और गढ्ढे हो जाते हैं , गाँव के युवकों को ले कर वही रास्ते ठीक कराते। खुद फावड़ा चलाते मिटटी उठाते और युवक भी काम करते। वे अक्सर कहा करते - कलयुग में संघ-शक्ति से ही काम किया जा सकता है। रामदीन पंडित संघ शक्ति का अच्छा उपयोग करना जानते थे। छोटे छोटे काम वे बच्चों को संगठित कर के करते और ज्यादा मेहनत के काम में युवकों को बटोर लेते।
वे गाँव के देवता बन गए थे। पूरा गाँव उन्हें प्यार देता था और वे पूरे गाँव को अपना घर मानते थे। रामदीन पंडित अकेले ही थे , उनकी शादी नहीं हुई थी, शायद उन्होंने किसी कारण से शादी की नहीं थी , सो अकेले होने के कारण कभी-कभी वे इधर - उधर घूमने भी जाते। उन्हें कभी - कभी अकेलापन लगता , जिससे उनका मन उदास हो जाता। उस समय वे अक्सर दो चार दिन के लिए बाहर जाते। वे कहाँ जाते थे , यह कोई नहीं जानता था। शायद वे अपने किसी मित्र के यहाँ जाते थे। इस विषय में एकाध बार उन्होंने लोगों से कहा था। ऐसे ही एक बार जब उनका मन कुछ उदास सा था , तो वे बिना किसी को कुछ बताये चले गए।
जब रामदीन पंडित बाहर गए थे , तभी किसी ने गाँव में खबर दी कि आदमी रेल से कट गया है , लोग पहचान नहीं पा रहे हैं , पर किसी ने यह भी कहा है की वे रामदीन पंडित लगते हैं.……
गाँव में बात हवा की तरह फैल गयी। रामदीन पंडित के साथ ऐसा क्यों हुआ ? किसी ने उन्हें धक्का तो नहीं दिया होगा। उनकी किसी से दुश्मनी भी नहीं थी , हो सकता है लाइन पार समय ऐसा हुआ हो.…यह भी हो सकता है की वो गाड़ी पर चढ़ या उतर रहे हों और पैर फिसल गया हो तथा गाड़ी के नीचे आ गए हों.……
एक ओर जहाँ गाँव में कुछ लोग चिन्तापूर्वक विचार कर रहे थे , वहीं दूसरी ओर कुछ लोग स्टेशन चल पड़े। चार किलोमीटर दूर स्टेशन जब लोग पहुंचे तो पता लगा कि पुलिस ने लाश को लावारिस मान कर क्रिया कर्म करा दिया। पुलिस से जब हुलिया पूछा गया तो रामदीन पंडित जैसा ही सब कुछ बताया गया।
लोग लौट अाये और गाँव में सब को बताया। बच्चों से ले कर बूढ़े तक सब दुखी हो गए। कुछ बच्चे और युवक तो रो तक पड़े। मुकेश जिसे रामदीन उस समय पढ़ा रहे थे , फूट - फूट कर रोने लगा ,"अब मुझे गणित कौन बताएगा। मैं फेल हो जाऊंगा। " किसी ने कहा " हम लोग बीमार पड़ते थे तो रामदीन भैया तुरंत आ कर दवा देते थे , अब पंद्रह किलोमीटर दूर बाहर जाना पड़ेगा। रामदीन भैया तो मुफ्त में दवा देते थे। " गाँव के बड़े - बूढ़ों ने कहा " हम लोगों के बीच में से एक देवता चला गया।
जब लोग दुखी हो रहे थे , उसी समय कुछ लोगों ने कहा ," रामदीन पंडित ने जीवन भर गाँव की सेवा की। भले ही उनका अपना कोई नहीं था पर वे तो सारे गाँव को ही अपना मानते थे। इसलिए हम लोगों का यह कर्तव्य है की हम सब उनकी तेरहवीं कर दें , जिससे उनकी आत्मा को शांति मिले। "
कहने की देर थी की योजना बन गयी , गाँव का हर घर दस रुपया चंदा देने को तैयार हो गया। तेरहवीं के दिन सारा गाँव न्योता गया , सारा गाँव खा रहा था , सारा गाँव खिला रहा था।
न्योता पांच बजे का था , सौ लोगों की पहली पंगत खाने बैठी। पूड़ी , सब्ज़ी , रायता , कचौड़ी और मिठाई परोस दी गयी। गाँव के सबसे बूढ़े व्यक्ति हीरा लाल बाबा यह कहने को खड़े हुए --- 'लगाओ भोग अर्थात खाना शुरू करो, ' तभी एक व्यक्ति दौड़ता हुआ आया और उसने हीरा लाल बाबा के कान में कुछ कहा।
लोग इंतज़ार कर रहे थे की खाने का आदेश मिले। सारा सामान पत्तलों पर परोसा रखा था। तभी हीरा लाल बाबा ने नज़र उठाई। रामदीन पंडित जल्दी - जल्दी चले आ रहे थे।
एक बार तो हीरा लाल बाबा घबरा गये -- ये रामदीन पंडित हैं या उनका भूत ?
अन्य लोग भी घबरा गये , कुछ डरे भी। रामदीन पंडित तो खत्म हो चुके हैं। आज उनकी तेरहवीं है , यह उनका भूत ही है........
यदि रामदीन पंडित किसी अकेले आदमी को मिलते तो शायद उसके होश ही उड़ जाते या उसकी हृदय गति बंद हो जाती , पर यहाँ तो सैकड़ों लोग थे , जिनमें कुछ आदेश पा कर पूड़ी सब्जी वगैरह खाने जा रहे थे। तभी हीरा लाल बाबू ने कहा ,"रामदीन पंडित तुम !"
"हाँ मैं ! क्यों , क्या बात है ? यह पंगत कैसी बैठी है ?" रामदीन पंडित ने पूछा।
बटेसरी काका , जो बड़े हंसोड़ हैं , बोले " पंगत तुम्हारी तेरहवीं की है। तुम मर चुके हो और हम तुम्हारी तेरहवीं खा रहे हैं। "
" पर क्यों ?" रामदीन पंडित ने फिर प्रश्न किया , " मैं तो अपने एक दोस्त के यहां चला गया था। उनके यहाँ मैं बीमार पड़ गया , इसलिए कुछ दिन लग गये। पर मेरे मरने की बात कैसे सोच ली ?"
इस पर हीरा लाल बाबा ने उन्हें सारा किस्सा बताया। सुन कर रामदीन पंडित खूब हँसे। फिर बोले ,"तो लगाओ भोग, अब जब सामान बना है तो खुशी - खुशी खाओ। मुझे भी भूख लगी है। मैं भी बैठता हूँ। " और वे हीरा लाल बाबा और अपने लिये पत्तल लगवा कर खाने बैठ गये।
लोग खाते जा रहे थे और हँसते जा रहे थे।
जिस तरह गाँव में रामदीन पंडित के मरने की खबर फैली थी उसी तरह जीवित होने और अपनी तेरहवीं में खाने की खबर भी फैल गयी। गाँव में अब अब दुःख की जगह खुशी छा गयी थी।
कहते हैं सामान इतना अधिक बना था कि कम न पड़े ! पर शायद खुशी में लोगों ने इतना खाया की कम पड़ ही गया। तब फिर चंदा हुआ और फिर सामान बना। बच्चों से ले कर बूढ़ों सबने अच्छी तरह खाया था।
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