शरतचन्द्र के उपन्यास श्रीकांत से एक रोमांचकारी अंश
शनिवार का दिन था। अब किसी तरह भी मैं ठहर नहीं सकता। खा-पी चुकने के बाद ही आज रवाना हो जाऊँगा, यह स्थिर हो जाने से आज सुबह से ही गाने-बजाने की बैठक जम गयी थी। थककर बाईजी ने गाना बन्द किया ही था कि हठात् सारी कहानियों से श्रेष्ठ भूतों की कहानी शुरू हो गयी। पल-भर में जो जहाँ था उसने वहीं से आग्रह के साथ वक्ता को घेर लिया।
पहले तो मैं लापरवाही से सुनता रहा। परन्तु अन्त में उद्विग्नज होकर बैठ गया। वक्ता थे गाँव के ही एक वृद्ध हिन्दुस्तानी महाशय। कहानी कैसे कहनी चाहिए सो वे जानते थे। वे कह रहे थे कि ''प्रेत-योनि के विषय में यदि किसी को सन्देह हो-तो वह आज, इस शनिवार की अमावस्या तिथि को, इस गाँव में आकर, अपने चक्षु-कर्णों का विवाद भंजन कर डाले। वह चाहे जिस जाति का, चाहे जैसा, आदमी हो और चाहे जितने आदमियों को साथ लेकर जाए, आज की रात उसका महाश्मशान को जाना निष्फल नहीं होगा। आज की घोर रात्रि में उग्र श्मशानचारी प्रेतात्मा को सिर्फ ऑंख से ही देखा जा सकता हो सो बात नहीं- उसका कण्ठस्वर भी सुना जा सकता है और इच्छा करने पर उससे बातचीत भी की जा सकती है।'' मैंने अपने बचपन की बातें याद करके हँस दिया। वृद्ध महाशय उसे लक्ष्य करके बोले, ''आप मेरे पास आइए।'' मैं उनके निकट खिसक गया। उन्होंने पूछा, ''आप विश्वास नहीं करते?''
''नहीं।''
''क्यों नहीं करते? नहीं करने का क्या कोई विशेष हेतु है?''
''नहीं।''
''तो फिर? इस गाँव में ही दो-एक ऐसे सिद्ध पुरुष हैं जिन्होंने अपनी ऑंखों देखा है। फिर भी जो आप विश्वास नहीं करते, मुँह पर हँसते हैं सो यह केवल दो पन्ने अंगरेजी पढ़ने का फल है। बंगाली लोग तो विशेष करके नास्तिक म्लेच्छ हो गये हैं।'' कहाँ की बात कहाँ आ पड़ी, देखकर मैं अवाक् हो गया। बोला, ''देखिए, इस सम्बन्ध में मैं तर्क नहीं करना चाहता। मेरा विश्वास मेरे पास है। मैं भले ही नास्तिक होऊँ, म्लेच्छ होऊँ- पर भूत नहीं मानता। जो कहते हैं कि हमने ऑंखों से देखा है वे या तो ठगे गये हैं, अथवा झूठे हैं, यही मेरा धारणा है।''
उस भले आदमी ने चट से मेरे दाहिने हाथ को पकड़कर कहा, ''क्या आप आज रात को श्मशान जा सकते है?'' मैं हँसकर बोला, ''जा सकता हूँ, बचपन से ही मैं अनेक रात्रियों में अनेक श्मशानों में गया हूँ।'' वृद्ध चिढ़कर बोल उठे, ''आप शेखी मत बघारिए बाबू।'' इतना कहकर उन्होंने उस श्मशान का, सारे श्रोताओं को स्तम्भित कर देने वाला, महाभयावह विवरण विगतवार कहना शुरू कर दिया। ''यह श्मशान कुछ ऐसा-वैसा स्थान नहीं है। यह महाश्मशान है। यहाँ पर हजारों नर-मुण्ड गिने जा सकते हैं। इस श्मशान में, हर रात को, महाभैरवी अपने साथियों सहित नर-मुण्डों से गेंद खेलती हैं और नृत्य करती हुई घूमती हैं। उनके खिलखिला कर हँसने के विकट शब्द से कितनी ही दफे, कितनी ही अविश्वासी अंगरेज जजों, मजिस्ट्रेटों के भी हृदय की धड़कन बन्द हो गयी है।'' इस किस्म की लोमहर्षक कहानी वे इस तरह से कहने लगे कि इतने लोगों के बीच, दिन के समय, तम्बू के भीतर बैठे रहने पर भी, बहुत से लोगों के सिर के बाल तक खड़े हो गये।
इस तरह जब वह महाश्मशान का इतिहास समाप्त हुआ तब वक्ता ने अभिमान के साथ मेरी ओर कटाक्ष फेंककर प्रश्न किया, ''क्यों बाबू साहब, आप जाँयगे?''
''जाऊँगा क्यों नहीं?''
''जाओगे! अच्छा, आपकी मरजी। प्राण जाने पर-''
मैं हँसकर बोला, ''नहीं महाशय, नहीं। प्राण जाने पर भी तुम्हें दोष न दिया जायेगा, तुम इससे मत डरो। किन्तु बेजानी जगह में मैं भी तो खाली हाथ नहीं जाऊँगा- बन्दूक साथ जायेगी!''
आलोचना अत्यधिक तेज हो उठी है, यह देखकर मैं वहाँ से उठ गया। ''पक्षी मारने की तो हिम्मत नहीं पड़ती, बन्दूक की गोली से भूत मारेंगे साहब!
कब मैं आम के बगीचे के बड़े अंधियारे मार्ग को पार कर गया, और कब नदी के किनारे के सरकारी बाँध के ऊपर आ खड़ा हुआ, यह मैं जान ही न सका।
''बाप!''
मैं एकदम चौंक पड़ा। सामने ऑंख उठाकर देखा, भूरे रंग की बालू का विस्तीर्ण मैदान है और उसे चीरती हुई एक शीर्ण नदी की वक्र रेखा टेढ़ी-मेढ़ी होती हुई सुदूर में अन्तर्हित हो गयी है। समस्त मैदान में जगह-जगह काँस के पेड़ों के झुण्ड उग रहे हैं। अन्धकार में एकाएक जान पड़ा कि मानो ये सब एक-एक आदमी हैं, जो आज की इस भयंकर अमावस्या की रात्रि को प्रेतात्मा का नृत्य देखने के लिए आमन्त्रित होकर आए हैं और बालू के बिछे हुए फर्श पर मानो अपना अपना आसन ग्रहण करके सन्नाटे में प्रतीक्षा कर रहे हैं। सिर के ऊपर, घने काले आकाश में, संख्यातीत गृह-तारे भी, उत्सुकता के साथ अपनी ऑंखों को एक साथ खोले हुए ताक रहे हैं। वायु नहीं, शब्द नहीं, अपनी छाती के भीतर छोड़कर, जितनी दूर दृष्टि जाती थी वहाँ तक कहीं भी, प्राणों की जरा-सी भी आहट अनुभव करने की गुंजाइश नहीं। जो रात्रि-चर पक्षी 'बाप' कहकर थम गया, वह भी और कुछ नहीं बोला। मैं पश्चिम की ओर धीरे-धीरे चला। उसी ओर वह महाश्मशान था। एक दिन शिकार के लिए आकर, जिस सेमर के झाड़ों के झाड़ को देख गया था, कुछ दूर चलने पर उनके काले-काले डाल-पत्र दिखाई दिए। यही थे उस महाश्मशान के द्वारपाल। इन्हीं को पार करके आगे बढ़ना होगा। इसी समय से प्राणों की अस्पष्ट आहट मिलने लगी, परन्तु वह ऐसी नहीं थी जिससे कि चित्त कुछ प्रसन्न हो। कुछ और दूर चलने पर वह कुछ और साफ हुई। किसी माँ के 'कुम्भकर्णी निद्रा' में सो जाने पर उसका छोटा बच्चा, रोते-रोते अन्त में बिल्कुील निर्जीव-सा होकर, जिस प्रकार रह-रहकर रिरियाना शुरू कर देता है, ऐसा मालूम हुआ कि ठीक उसी तरह श्मशान के एकान्त में कोई रिरिया रहा है। मैं बाजी लगाकर कह सकता हूँ कि, जिसने उस रोने का इतिहास पहले कभी जाना-सुना न हो, वह ऐसी गहरी अंधेरी अमावस्या की रात्रि में अकेला उस ओर एक पैर भी आगे बढ़ाना नहीं चाहेगा। वह मनुष्य का बच्चा नहीं चमगीदड़ का बच्चा था, जो अंधेरे में अपनी माँ को न देख सकने के कारण रो रहा था- यह बात, पहले से जाने बिना, सम्भव नहीं है कि कोई अपने आप निश्चयपूर्वक कह सके कि यह आवाज मनुष्य के बच्चे की है। और भी नजदीक जाकर देखा, ठीक यही बात थी। झोलों की तरह सेमर की डाल-डाल में लटके हुए, असंख्य चमगीदड़ रात्रि-वास कर रहे हैं और उन्हीं में का कोई शैतान बच्चा इस तरह आर्त्त कण्ठ से रो रहा है।
झाड़ के ऊपर वह रोता ही रहा और उसके नीचे से आगे बढ़ता हुआ मैं उस महाश्मशान के एक हिस्से में जा खड़ा हुआ। सुबह उस वृद्ध ने जो यह कहा था कि यहाँ लाखों नर-मुण्ड गिने जा सकते हैं- मैंने देखा, कि उसके कथन में जरा भी अत्युक्ति नहीं है- कपाल तो वहाँ असंख्य पड़े हुए थे; फिर भी, खिलाड़ी उस समय तक भी आकर नहीं जुट पाए थे। मेरे सिवाय कोई और अशरीरी दर्शक वहाँ उपस्थित था या नहीं, सो भी मैं इन दो नश्वर चक्षुओं से आविष्कृत नहीं कर सका। उस समय घोर अमावास्या थी। इसलिए, खेल शुरू होने में और अधिक देरी नहीं है, यह सोच करके मैं एक रेत के टीले पर जाकर बैठ गया। बन्दूक खोलकर, उसके टोंटे की और एक बार जाँच करके तथा फिर उसे यथास्थान लगाकर, मैंने उसे गोद में रख लिया और तैयार हो रहा। पर हाय रे टोंटे! विपत्ति के समय, उसने जरा भी सहायता नहीं की।
प्यारी की बात याद आ गयी। उसने कहा था, ''यदि निष्कपट भाव से सचमुच ही तुम्हें भूत पर विश्वास नहीं है, तो फिर, वहाँ कर्म-भोग करने जाते ही क्यों हो? और यदि विश्वास में जोर नहीं है, तो फिर मैं, भूत-प्रेत चाहे हों चाहे न हों, तुम्हें किसी तरह जाने न दूँगी।'' सच तो है, यहाँ आया आखिर क्या देखने हूँ? पाप मन से अगोचर तो है नहीं। मैं वास्तव में कुछ भी देखने नहीं आया हूँ। केवल यही दिखाने आया हूँ कि मुझमें कितना साहस है। सुबह जिन लोगों ने कहा था, ''कायर बंगाली काम के समय भाग जाते हैं,'' मुझे तो उनके निकट प्रमाण सहित सिर्फ यही बताना है कि बंगाली लोग बड़े वीर होते हैं।
मेरा यह बहुत दिनों का दृढ़ विश्वास है कि मनुष्य के मरने पर फिर उसका अस्तित्व नहीं रहता। और यदि रहता भी हो, तो भी जिस श्मशान में उसकी पार्थिव देह को पीड़ा पहुँचाने में कुछ भी कसर नहीं रखी जाती वहाँ, उसी जगह लौटकर अपनी ही खोपड़ी में लातें मार मारकर उसे लुढ़काते फिरने की इच्छा होना उसके लिए न तो स्वाभाविक ही है और न उचित ही। कम-से-कम मैं अपने लिए तो ऐसा ही समझता हूँ। यह बात दूसरी है कि मनुष्य की रुचि भिन्न-भिन्न होती है। यदि किसी की होती हो तो, इस बढ़िया रात को रात्रि-जागरण करके, मेरा इतनी दूर तक का आना निष्फल नहीं होगा। और फिर, आज उस वृद्ध व्यक्ति ने इसकी बड़ी भारी आशा भी तो दिलाई है।
एकाएक हवा का एक झोंका कितनी ही रेत उड़ाता हुआ मेरे शरीर पर से होकर निकल गया; और वह खत्म भी होने नहीं पाया कि दूसरा और फिर तीसरा भी, ऊपर से होकर निकल गया। मन में सोचने लगा कि भला यह क्या है। इतनी देर तक तो लेश-भर भी हवा न थी। अपने आप चाहे कितना ही क्यों न समझूँ और समझाऊँ, फिर भी यह संस्कार, कि मरने के बाद भी कुछ अज्ञात सरीखा रहता है, हमारे हाड़-मांस में ही भिदा हुआ है, और जब तक हाड़-मांस हैं तब तक वह भी है, फिर चाहे मैं उसे स्वीकार करूँ चाहे न करूँ। इसलिए उस हवा के झोंके ने केवल रेत और धूल ही नहीं उड़ाई, किन्तु मेरे उस मज्जागत गुप्त संस्कार पर भी चोट पहुँचाई। क्रमश: धीरे-धीरे कुछ और जोर से हवा चलने लगी। बहुत से आदमी शायद यह नहीं जानते कि मृत मनुष्य की खोपड़ी में से हवा के गुजरने से ठीक दीर्घ श्वास छोड़ने का-सा शब्द होता है। देखते ही देखते आसपास, सामने पीछे, चारों ओर से दीर्घ उसासों की झड़ी-सी लग गयी। ठीक ऐसा लगने लगा कि मानो कितने ही आदमी मुझे घेरकर बैठे हैं और लगातार जोर-जोर से हाय-हाय करके उसासें ले रहे हैं; और अंगरेजी में जिसे 'अन्कैनी फीलिंग' (अनमना-सा लगना) कहते हैं, ठीक उसी किस्म की एक आस्वस्ति या बेचैनी सारे शरीर को झकझोर गयी। चमगीदड़ का वह बच्चा तब भी चुप नहीं हुआ था। पीछे-पीछे मानो वह और भी अधिक रिरियाने लगा। मुझे अब मालूम होने लगा कि मैं भयभीत हो रहा हूँ। बहुत जानकारी के फलस्वरूप यह खूब जानता था कि जिस स्थान में आया हूँ वहाँ, समय रहते, यदि भय को दबा न सका, तो मृत्यु तक हो जाना असम्भव नहीं है। वास्तव में इस तरह की भयानक जगह में, इसके पहले, मैं कभी अकेला नहीं आया था। स्वच्छन्दता से जो यहाँ अकेला आ सकता था, वह था इन्द्र- मैं नहीं। अनेकों बार उसके साथ अनेकों भयानक स्थानों में जा-आने के कारण मेरी यह धारणा हो गयी थी कि इच्छा करने पर मैं स्वयं भी उसी के समान ऐसे सभी स्थानों में अकेला जा सकता हूँ। किन्तु, वह कितना बड़ा भ्रम था! और मैं केवल उसी झोंक में उसका अनुकरण करने चला था। एक ही क्षण में आज सब बातें सुस्पष्ट हो उठीं। मेरी इतनी चौड़ी छाती कहाँ? मेरे पास वह रामनाम का अभेद कवच कहाँ? मैं इन्द्र नहीं हूँ जो इस प्रेत-भूमि में अकेला खड़ा रहूँ, और ऑंखें गड़ाकर प्रेतात्माओं का गेंद खेलना देखूँ। मन में लगा कि कोई एकाध जीवित बाघ या भालू ही दिखाई पड़ जाय, तो मैं शायद जीवित बच जाऊँ! एकाएक किसी ने मानो पीछे खड़े होकर मेरे दाहिने कान पर नि:श्वास डाला। वह इतनी ठण्डी थी कि हिम के कणों की तरह मानो उसी जगह जम गयी। गर्दन उठाए बगैर ही मुझे साफ-साफ दिखाई पड़ा कि वह नि:श्वास जिस नाक के बृहदाकार नकुओं में से होकर बाहर आ गयी है, उसमें न चमड़ा है न मांस- एक बूँद रुधिर भी नहीं है। केवल हाड़ और छिद्र ही उसमें हैं। आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ अन्धकार था। सन्नाटे की आधी रात साँय साँय करने लगी। आसपास की हाय-हाय क्रम-क्रम से मानो, हाथों के पास से छूती हुई जाने लगी। कानों के ऊपर वैसी ही अत्यन्त ठण्डी उसासें लगातार आने लगीं और यही मुझे सबसे अधिक परिवश, करने लगीं। मन ही मन ऐसा मालूम होने लगा कि मानो सारे प्रेत-लोक की ठण्डी हवा उस गढ़े में से बाहर आकर मेरे शरीर को लग रही है।
किन्तु, इस हालत में भी मुझे यह बात नहीं भूली कि किसी भी तरह अपने होश-हवास गुम कर देने से काम न चलेगा। यदि ऐसा हुआ, तो मृत्यु अनिवार्य है। मैंने देखा कि मेरा दाहिना पैर थर-थर काँप रहा है। उसे रोकने की चेष्टा की, परन्तु वह रुका नहीं, मानो वह मेरा पैर ही न हो।
ठीक इसी समय बहुत दूर से बहुत से कण्ठों की मिली हुई पुकार कानों में पहुँची, ''बाबूजी! बाबू साहब!'' सारे शरीर में काँटे उठ आय। कौन लोग पुकार रहे हैं? फिर आवाज आई, ''कहीं गोली मत छोड़ दीजिएगा!'' आवाज क्रमश: आगे आने लगी, तिरछे देखने से प्रकाश की दो क्षीण रेखाएँ आती हुई नजर पड़ीं। एक दफे जान पड़ा मानो उस चिल्लाहट के भीतर रतन के स्वर का आभास है। कुछ देर ठहरकर और भी साफ मालूम हुआ कि जरूर वही है। और भी कुछ दूर अग्रसर होकर, एक सेमर के वृक्ष के नीचे आड़ में होकर वह चिल्लाया ''बाबूजी, आप जहाँ भी हों गोली-ओली मत छोड़िए, मैं हूँ रतन।'' रतन सचमुच ही जात का नाई है, इसमें मुझे जरा भी सन्देह नहीं रहा।
मैंने उल्लास से चिल्लाकर उत्तर देना चाहा, किन्तु कण्ठ से आवाज नहीं निकली। प्रवाद है कि भूत-प्रेत जाते समय कुछ-न-कुछ नष्ट कर जाते हैं। जो मेरे पीछे था, वह मेरा कण्ठ स्वर नष्ट करके ही बिदा हुआ था।
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