बाबू देवकीनन्दन खत्री के प्रसिद्ध उपन्यास चंद्रकांता से कुछ दिलचस्प अंश
बयान – 1
शाम का वक्त है, कुछ-कुछ सूरज दिखाई दे रहा है, सुनसान मैदान में एक पहाड़ी के नीचे दो शख्स वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह एक पत्थर की चट्टान पर बैठ कर आपस में बातें कर रहे हैं।
वीरेंद्रसिंह की उम्र इक्कीस या बाईस वर्ष की होगी। यह नौगढ़ के राजा सुरेंद्रसिंह का इकलौता लड़का है। तेजसिंह राजा सुरेंद्रसिंह के दीवान जीतसिंह का प्यारा लड़का और कुँवर वीरेंद्रसिंह का दिली दोस्त, बड़ा चालाक और फुर्तीला, कमर में सिर्फ खंजर बाँधे, बगल में बटुआ लटकाए, हाथ में एक कमंद लिए बड़ी तेजी के साथ चारों तरफ देखता और इनसे बातें करता जाता है। इन दोनों के सामने एक घोड़ा कसा-कसाया दुरुस्त पेड़ से बँधा हुआ है।
कुँवर वीरेंद्रसिंह कह रहे हैं – ‘भाई तेजसिंह, देखो मुहब्बत भी क्या बुरी बला है जिसने इस हद तक पहुँचा दिया। कई दफा तुम विजयगढ़ से राजकुमारी चंद्रकांता की चिट्ठी मेरे पास लाए और मेरी चिट्ठी उन तक पहुँचाई, जिससे साफ मालूम होता है कि जितनी मुहब्बत मैं चंद्रकांता से रखता हूँ उतनी ही चंद्रकांता मुझसे रखती है, हालाँकि हमारे राज्य और उसके राज्य के बीच सिर्फ पाँच कोस का फासला है इस पर भी हम लोगों के किए कुछ भी नहीं बन पड़ता। देखो इस खत में भी चंद्रकांता ने यही लिखा है कि जिस तरह बने, जल्द मिल जाओ।’
तेजसिंह ने जवाब दिया - ‘मैं हर तरह से आपको वहाँ ले जा सकता हूँ, मगर एक तो आजकल चंद्रकांता के पिता महाराज जयसिंह ने महल के चारों तरफ सख्त पहरा बैठा रखा है, दूसरे उनके मंत्री का लड़का क्रूरसिंह उस पर आशिक हो रहा है, ऊपर से उसने अपने दोनों ऐयारों को जिनका नाम नाजिम अली और अहमद खाँ है इस बात की ताकीद करा दी है कि बराबर वे लोग महल की निगहबानी किया करें क्योंकि आपकी मुहब्बत का हाल क्रूरसिंह और उसके ऐयारों को बखूबी मालूम हो गया है। चाहे चंद्रकांता क्रूरसिंह से बहुत ही नफरत करती है और राजा भी अपनी लड़की अपने मंत्री के लड़के को नहीं दे सकता फिर भी उसे उम्मीद बँधी हुई है और आपकी लगावट बहुत बुरी मालूम होती है। अपने बाप के जरिए उसने महाराज जयसिंह के कानों तक आपकी लगावट का हाल पहुँचा दिया है और इसी सबब से पहरे की सख्त ताकीद हो गई है। आप को ले चलना अभी मुझे पसंद नहीं जब तक की मैं वहाँ जा कर फसादियों को गिरफ्तार न कर लूँ।’
‘इस वक्त मैं फिर विजयगढ़ जा कर चंद्रकांता और चपला से मुलाकात करता हूँ क्योंकि चपला ऐयारा और चंद्रकांता की प्यारी सखी है और चंद्रकांता को जान से ज्यादा मानती है। सिवाय इस चपला के मेरा साथ देने वाला वहाँ कोई नहीं है। जब मैं अपने दुश्मनों की चालाकी और कार्रवाई देख कर लौटूं तब आपके चलने के बारे में राय दूँ। कहीं ऐसा न हो कि बिना समझे-बूझे काम करके हम लोग वहाँ ही गिरफ्तार हो जाएँ।’
वीरेंद्र – ‘जो मुनासिब समझो करो, मुझको तो सिर्फ अपनी ताकत पर भरोसा है लेकिन तुमको अपनी ताकत और ऐयारी दोनों का।’
तेजसिंह – ‘मुझे यह भी पता लगा है कि हाल में ही क्रूरसिंह के दोनों ऐयार नाजिम और अहमद यहाँ आ कर पुनः हमारे महाराजा के दर्शन कर गए हैं। न मालूम किस चालाकी से आए थे। अफसोस, उस वक्त मैं यहाँ न था।’
वीरेंद्र – ‘मुश्किल तो यह है कि तुम क्रूरसिंह के दोनों ऐयारों को फँसाना चाहते हो और वे लोग तुम्हारी गिरफ्तारी की फिक्र में हैं, परमेश्वर कुशल करे। खैर, अब तुम जाओ और जिस तरह बने, चंद्रकांता से मेरी मुलाकात का बंदोबस्त करो।’
तेजसिंह फौरन उठ खड़े हुए और वीरेंद्रसिंह को वहीं छोड़ पैदल विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए। वीरेंद्रसिंह भी घोड़े को दरख्त से खोल कर उस पर सवार हुए और अपने किले की तरफ चले गए।
बयान - 2
विजयगढ़ में क्रूरसिंह अपनी बैठक के अंदर नाजिम और अहमद दोनों ऐयारों के साथ बातें कर रहा है।
क्रूरसिंह – ‘देखो नाजिम, महाराज का तो यह ख्याल है कि मैं राजा होकर मंत्री के लड़के को कैसे दामाद बनाऊँ, और चंद्रकांता वीरेंद्रसिंह को चाहती है। अब कहो कि मेरा काम कैसे निकले? अगर सोचा जाए कि चंद्रकांता को ले कर भाग जाऊँ, तो कहाँ जाऊँ और कहाँ रह कर आराम करूँ? फिर ले जाने के बाद मेरे बाप की महाराज क्या दुर्दशा करेंगे? इससे तो यही मुनासिब होगा कि पहले वीरेंद्रसिंह और उसके ऐयार तेजसिंह को किसी तरह गिरफ्तार कर किसी ऐसी जगह ले जा कर खपा डाला जाए कि हजार वर्ष तक पता न लगे, और इसके बाद मौका पा कर महाराज को मारने की फिक्र की जाए, फिर तो मैं झट गद्दी का मालिक बन जाऊँगा और तब अलबत्ता अपनी जिंदगी में चंद्रकांता से ऐश कर सकूँगा। मगर यह तो कहो कि महाराज के मरने के बाद मैं गद्दी का मालिक कैसे बनूँगा? लोग कैसे मुझे राजा बनाएँगे।’
नाजिम - हमारे राजा के यहाँ बनिस्बत काफिरों के मुसलमान ज्यादा हैं, उन सभी को आपकी मदद के लिए मैं राजी कर सकता हूँ और उन लोगों से कसम खिला सकता हूँ कि महाराज के बाद आपको राजा मानें, मगर शर्त यह है कि काम हो जाने पर आप भी हमारे मजहब मुसलमानी को कबूल करें?
क्रूरसिंह – ‘अगर ऐसा है तो मैं तुम्हारी शर्त दिलोजान से कबूल करता हूँ?’
अहमद – ‘तो बस ठीक है, आप इस बात का इकरारनामा लिख कर मेरे हवाले करें। मैं सब मुसलमान भाइयों को दिखला कर उन्हें अपने साथ मिला लूँगा।’
क्रूरसिंह ने काम हो जाने पर मुसलमानी मजहब अख्तियार करने का इकरारनामा लिख कर फौरन नाजिम और अहमद के हवाले किया, जिस पर अहमद ने क्रूरसिंह से कहा - ‘अब सब मुसलमानों का एक (दिल) कर लेना हम लोगों के जिम्मे है, इसके लिए आप कुछ न सोचिए। हाँ, हम दोनों आदमियों के लिए भी एक इकरारनामा इस बात का हो जाना चाहिए कि आपके राजा हो जाने पर हमीं दोनों वजीर मुकर्रर किए जाएँगे, और तब हम लोगों की चालाकी का तमाशा देखिए कि बात-की-बात में जमाना कैसे उलट-पुलट कर देते हैं।’
क्रूरसिंह ने झटपट इस बात का भी इकरारनामा लिख दिया जिससे वे दोनों बहुत ही खुश हुए। इसके बाद नाजिम ने कहा - ‘इस वक्त हम लोग चंद्रकांता के हालचाल की खबर लेने जाते हैं क्योंकि शाम का वक्त बहुत अच्छा है, चंद्रकांता जरूर बाग में गई होगी और अपनी सखी चपला से अपनी विरह-कहानी कह रही होगी, इसलिए हम को पता लगाना कोई मुश्किल न होगा कि आज कल वीरेंद्रसिंह और चंद्रकांता के बीच में क्या हो रहा है।’
यह कह कर दोनों ऐयार क्रूरसिंह से विदा हुए।
बयान - 3
कुछ-कुछ दिन बाकी है, चंद्रकांता, चपला और चंपा बाग में टहल रही हैं। भीनी-भीनी फूलों की महक धीमी हवा के साथ मिल कर तबीयत को खुश कर रही है। तरह-तरह के फूल खिले हुए हैं। बाग के पश्चिम की तरफ वाले आम के घने पेड़ों की बहार और उसमें से अस्त होते हुए सूरज की किरणों की चमक एक अजीब ही मजा दे रही है। फूलों की क्यारियों की रविशों में अच्छी तरह छिड़काव किया हुआ है और फूलों के दरख्त भी अच्छी तरह पानी से धोए हैं। कहीं गुलाब, कहीं जूही, कहीं बेला, कहीं मोतिए की क्यारियाँ अपना-अपना मजा दे रही हैं। एक तरफ बाग से सटा हुआ ऊँचा महल और दूसरी तरफ सुंदर-सुंदर बुर्जियाँ अपनी बहार दिखला रही हैं। चपला, जो चालाकी के फन में बड़ी तेज और चंद्रकांता की प्यारी सखी है, अपने चंचल हाव-भाव के साथ चंद्रकांता को संग लिए चारों ओर घूमती और तारीफ करती हुई खुशबूदार फूलों को तोड़-तोड़ कर चंद्रकांता के हाथ में दे रही है, मगर चंद्रकांता को वीरेंद्रसिंह की जुदाई में ये सब बातें कम अच्छी मालूम होती हैं? उसे तो दिल बहलाने के लिए उसकी सखियाँ जबर्दस्ती बाग में खींच लाई हैं।
चंद्रकांता की सखी चंपा तो गुच्छा बनाने के लिए फूलों को तोड़ती हुई मालती लता के कुंज की तरफ चली गई लेकिन चंद्रकांता और चपला धीरे-धीरे टहलती हुई बीच के फव्वारे के पास जा निकलीं और उसकी चक्करदार टूटियों से निकलते हुए जल का तमाशा देखने लगीं।
चपला – ‘न मालूम चंपा किधर चली गई?’
चंद्रकांता – ‘कहीं इधर-उधर घूमती होगी।’
चपला – ‘दो घड़ी से ज्यादा हो गया, तब से वह हम लोगों के साथ नहीं है।’
चंद्रकांता - देखो वह आ रही है।
चपला – ‘इस वक्त तो उसकी चाल में फर्क मालूम होता है।’
इतने में चंपा ने आ कर फूलों का एक गुच्छा चंद्रकांता के हाथ में दिया और कहा - ‘देखिए, यह कैसा अच्छा गुच्छा बना लाई हूँ। अगर इस वक्त कुँवर वीरेंद्रसिंह होते तो इसको देख मेरी कारीगरी की तारीफ करते और मुझको कुछ इनाम भी देते।’
वीरेंद्रसिंह का नाम सुनते ही एकाएक चंद्रकांता का अजब हाल हो गया। भूली हुई बात फिर याद आ गई, कमल मुख मुरझा गया, ऊँची-ऊँची साँसें लेने लगी, आँखों से आँसू टपकने लगे। धीरे-धीरे कहने लगी - ‘न मालूम विधाता ने मेरे भाग्य में क्या लिखा है? न मालूम मैंने उस जन्म में कौन-से ऐसे पाप किए हैं जिनके बदले यह दु:ख भोगना पड़ रहा है? देखो, पिता को क्या धुन समाई है। कहते हैं कि चंद्रकांता को कुँआरी ही रखूँगा। हाय! वीरेंद्र के पिती ने शादी करने के लिए कैसी-कैसी खुशामदें की, मगर दुष्ट क्रूर के बाप कुपथसिंह ने उसको ऐसा कुछ बस में कर रखा है कि कोई काम नहीं होने देता, और उधर कंबख्त क्रूर अपनी ही लसी लगाना चाहता है।’
एकाएक चपला ने चंद्रकांता का हाथ पकड़ कर जोर से दबाया मानो चुप रहने के लिए इशारा किया।
चपला के इशारे को समझ कर चंद्रकांता चुप हो गई और चपला का हाथ पकड़ कर फिर बाग में टहलने लगी, मगर अपना रूमाल उसी जगह जान-बूझ कर गिराती गई। थोड़ी दूर आगे बढ़ कर उसने चंपा से कहा - ‘सखी देख तो, फव्वारे के पास कहीं मेरा रूमाल गिर पड़ा है।’
चंपा रूमाल लेने फव्वारे की तरफ चली गई तब चंद्रकांता ने चपला से पूछा - ‘सखी, तूने बोलते समय मुझे एकाएक क्यों रोका?’
चपला ने कहा - ‘मेरी प्यारी सखी, मुझको चंपा पर शुबहा हो गया है। उसकी बातों और चितवनों से मालूम होता है कि वह असली चंपा नहीं है।’
इतने में चंपा ने रूमाल ला कर चपला के हाथ में दिया। चपला ने चंपा से पूछा - “सखी, कल रात को मैंने तुझको जो कहा था सो तूने किया?” चंपा बोली - ‘नहीं, मैं तो भूल गई।’ तब चपला ने कहा - “भला वह बात तो याद है या वो भी भूल गई?” चंपा बोली, “बात तो याद है।” तब फिर चपला ने कहा, “भला दोहरा के मुझसे कह तो सही तब मैं जानू की तुझे याद है।”
इस बात का जवाब न दे कर चंपा ने दूसरी बात छेड़ दी जिससे शक की जगह यकीन हो गया कि यह चंपा नहीं है। आखिर चपला यह कह कर कि मैं तुझसे एक बात कहूँगी, चंपा को एक किनारे ले गई और कुछ मामूली बातें करके बोली - ‘देख तो चंपा, मेरे कान से कुछ बदबू तो नहीं आती? क्योंकि कल से कान में दर्द है।’ नकली चंपा चपला के फेर में पड़ गई और फौरन कान सूँघने लगी। चपला ने चालाकी से बेहोशी की बुकनी कान में रख कर नकली चंपा को सूँघा दी जिसके सूँघते ही चंपा बेहोश हो कर गिर पड़ी।
चपला ने चंद्रकांता को पुकार कर कहा - ‘आओ सखी, अपनी चंपा का हाल देखो।’ चंद्रकांता ने पास आ कर चंपा को बेहोश पड़ी हुई देख चपला से कहा - ‘सखी, कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारा ख्याल धोखा ही निकले और पीछे चंपा से शरमाना पड़े।’
नहीं, ऐसा न होगा।’ कह कर चपला चंपा को पीठ पर लाद फव्वारे के पास ले गई और चंद्रकांता से बोली - ‘तुम फव्वारे से चुल्लू भर-भर पानी इसके मुँह पर डालो, मैं धोती हूँ।’ चंद्रकांता ने ऐसा ही किया और चपला खूब रगड़-रगड़ कर उसका मुँह धोने लगी। थोड़ी देर में चंपा की सूरत बदल गई और साफ नाजिम की सूरत निकल आई। देखते ही चंद्रकांता का चेहरा गुस्से से लाल हो गया और वह बोली - ‘सखी, इसने तो बड़ी बेअदबी की।’
‘देखो तो, अब मैं क्या करती हूँ।’ कह कर चपला नाजिम को फिर पीठ पर लाद बाग के एक कोने में ले गई, जहाँ बुर्ज के नीचे एक छोटा-सा तहखाना था। उसके अंदर बेहोश नाजिम को ले जा कर लिटा दिया और अपने ऐयारी के बटुए में से मोमबत्ती निकाल कर जलाई। एक रस्सी से नाजिम के पैर और दोनों हाथ पीठ की तरफ खूब कस कर बाँधे और डिबिया से लखलखा निकाल कर उसको सुँघाया, जिससे नाजिम ने एक छींक मारी और होश में आ कर अपने को कैद और बेबस देखा। चपला कोड़ा ले कर खड़ी हो गई और मारना शुरू किया।
‘माफ करो मुझसे बड़ा कसूर हुआ, अब मैं ऐसा कभी न करूँगा बल्कि इस काम का नाम भी न लूँगा।’ इत्यादि कह कर नाजिम चिल्लाने और रोने लगा, मगर चपला कब सुनने वाली थी? वह कोड़ा जमाए ही गई और बोली - ‘सब्र कर, अभी तो तेरी पीठ की खुजली भी न मिटी होगी। तू यहाँ क्यों आया था? क्या तुझे बाग की हवा अच्छी मालूम हुई थी? क्या बाग की सैर को जी चाहा था? क्या तू नहीं जानता था कि चपला भी यहाँ होगी? हरामजादे के बच्चे, बेईमान, अपने बाप के कहने से तूने यह काम किया? देख मैं उसकी भी तबीयत खुश कर देती हूँ।’ यह कह कर फिर मारना शुरू किया, और पूछा - ‘सच बता, तू कैसे यहाँ आया और चंपा कहाँ गई?’
मार के खौफ से नाजिम को असल हाल कहना ही पड़ा। वह बोला - ‘चंपा को मैंने ही बेहोश किया था, बेहोशी की दवा छिड़क कर फूलों का गुच्छा उसके रास्ते में रख दिया जिसको सूँघ कर वह बेहोश हो गई, तब मैंने उसे मालती लता के कुँज में डाल दिया और उसकी सूरत बना उसके कपड़े पहन तुम्हारी तरफ चला आया। लो, मैंने सब हाल कह दिया, अब तो छोड़ दो।’
चपला ने कहा - ‘ठहर, छोड़ती हूँ।’ मगर फिर भी दस-पाँच कोड़े और जमा ही दिए, यहाँ तक की नाजिम बिलबिला उठा, तब चपला ने चंद्रकांता से कहा - ‘सखी, तुम इसकी निगहबानी करो, मैं चंपा को ढूँढ़ कर लाती हूँ। कहीं वह पाजी झूठ न कहता हो।’
चंपा को खोजती हुई चपला मालती लता के पास पहुँची और बत्ती जला कर ढ़ूँढ़ने लगी। देखा की सचमुच चंपा एक झाड़ी में बेहोश पड़ी है और बदन पर उसके एक लत्ता भी नहीं है। चपला उसे लखलखा सुँघा कर होश में लाई और पूछा - ‘क्यों मिजाज कैसा है, खा गई न धोखा।’
चंपा ने कहा - ‘मुझको क्या मालूम था कि इस समय यहाँ ऐयारी होगी? इस जगह फूलों का एक गुच्छा पड़ा था जिसको उठा कर सूँघते ही मैं बेहोश हो गई, फिर न मालूम क्या हुआ। हाय, हाय। न जाने किसने मुझे बेहोश किया, मेरे कपड़े भी उतार लिए, बड़ी लागत के कपड़े थे।’
वहाँ पर नाजिम के कपड़े पड़े हुए थे जिनमें से दो एक ले कर चपला ने चंपा का बदन ढ़का और तब यह कह कर की ‘मेरे साथ आ, मैं उसे दिखलाऊँ जिसने तेरी यह हालत की चंपा को साथ ले उस जगह आई जहाँ चंद्रकांता और नाजिम थे। नाजिम की तरफ इशारा करके चपला ने कहा, देख, इसी ने तेरे साथ यह भलाई की थी।’ चंपा को नाजिम की सूरत देखते ही बड़ा क्रोध आया और वह चपला से बोली - ‘बहन अगर इजाजत हो तो मैं भी दो चार कोड़े लगा कर अपना गुस्सा निकाल लूँ?’
चपला ने कहा - ‘हाँ-हाँ, जितना जी चाहे इस मुए को जूतियाँ लगाओ।’ बस फिर क्या था, चंपा ने मनमाने कोड़े नाजिम को लगाए, यहाँ तक कि नाजिम घबरा उठा और जी में कहने लगा - ‘खुदा, क्रूरसिंह को गारत करे जिसकी बदौलत मेरी यह हालत हुई।’
आखिरकार नाजिम को उसी कैदखाने में कैद कर तीनों महल की तरफ रवाना हुई। यह छोटा-सा बाग जिसमें ऊपर लिखी बातें हुईं, महल के संग सटा हुआ उसके पिछवाड़े की तरफ पड़ता था और खास कर चंद्रकांता के टहलने और हवा खाने के लिए ही बनवाया गया था। इसके चारों तरफ मुसलमानों का पहरा होने के सबब से ही अहमद और नाजिम को अपना काम करने का मौका मिल गया था।
बयान - 4
तेजसिंह वीरेंद्रसिंह से रुखसत होकर विजयगढ़ पहुँचेगा और चंद्रकांता से मिलने की कोशिश करने लगे, मगर कोई तरकीब न बैठी, क्योंकि पहरे वाले बड़ी होशियारी से पहरा दे रहे थे। आखिर सोचने लगे कि क्या करना चाहिए? रात चाँदनी है, अगर अँधेरी रात होती तो कमंद लगा कर ही महल के ऊपर जाने की कोशिश की जाती।
आखिर तेजसिंह एकांत में गए और वहाँ अपनी सूरत एक चोबदार की-सी बना महल की ड्योढ़ी पर पहुँचेगा। देखा कि बहुत से चोबदार और प्यादे बैठे पहरा दे रहे हैं। एक चोबदार से बोले - ‘यार, हम भी महाराज के नौकर हैं, आज चार महीने से महाराज हमको अपनी अर्दली में नौकर रखा है, इस वक्त छुट्टी थी, चाँदनी रात का मजा देखते-टहलते इस तरफ आ निकले, तुम लोगों को तंबाकू पीते देख जी में आया कि चलो दो फूँक हम भी लगा लें, अफीम खाने वालों को तंबाकू की महक जैसी मालूम होती है आप लोग भी जानते ही होंगे।’
‘हाँ-हाँ, आइए, बैठिए, तंबाकू पीजिए।’ कह कर चोबदार और प्यादों ने हुक्का तेजसिंह के आगे रखा।
तेजसिंह ने कहा - ‘मैं हिंदू हूँ, हुक्का तो नहीं पी सकता, हाँ, हाथ से जरूर पी लूँगा।’ यह कह चिलम उतार ली और पीने लगे।
उन्होंने दो फूँक तंबाकू के नहीं पिए थे कि खाँसना शुरू किया, इतना खाँसा कि थोड़ा-सा पानी भी मुँह से निकाल दिया और तब कहा - ‘मियाँ तुम लोग अजब कड़वा तंबाकू पीते हो? मैं तो हमेशा सरकारी तंबाकू पीता हूँ। महाराज के हुक्काबर्दार से दोस्ती हो गई है, वह बराबर महाराज के पीने वाले तंबाकू में से मुझको दिया करता है, अब ऐसी आदत पड़ गई है कि सिवाय उस तंबाकू के और कोई तंबाकू अच्छा नहीं लगता।’
इतना कह चोबदार बने हुए तेजसिंह ने अपने बटुए में से एक चिलम तंबाकू निकाल कर दिया और कहा - ‘तुम लोग भी पी कर देख लो कि कैसा तंबाकू है।
भला चोबदारों ने महाराज के पीने का तंबाकू कभी काहे को पिया होगा। झट हाथ फैला दिया और कहा - ‘लाओ भाई, तुम्हारी बदौलत हम भी सरकारी तंबाकू पी लें। तुम बड़े किस्मतवार हो कि महाराज के साथ रहते हो, तुम तो खूब चैन करते होगे।’ यह नकली चोबदार (तेजसिंह) के हाथ से तंबाकू ले लिया और खूब दोहरा जमा कर तेजसिंह के सामने लाए। तेजसिंह ने कहा - ‘तुम सुलगाओ, फिर मैं भी ले लूँगा।’
अब हुक्का गुड़गुड़ाने लगा और साथ ही गप्पें भी उड़ने लगीं।
थोड़ी ही देर में सब चोबदार और प्यादों का सर घूमने लगा, यहाँ तक कि झुकते-झुकते सब औंधे हो कर गिर पड़े और बेहोश हो गए।
अब क्या था, बड़ी आसानी से तेजसिंह फाटक के अंदर घुस गए और नजर बचा कर बाग में पहुँचेगा। देखा कि हाथ में रोशनी लिए सामने से एक लौंडी चली आ रही है। तेजसिंह ने फुर्ती से उसके गले में कमंद डाली और ऐसा झटका दिया कि वह चूँ तक न कर सकी और जमीन पर गिर पड़ी। तुरंत उसे बेहोशी की बुकनी सूँघाई और जब बेहोश हो गई तो उसे वहाँ से उठा कर किनारे ले गए। बटुए में से सामान निकाल मोमबत्ती जलाई और सामने आईना रख अपनी सूरत उसी के जैसी बनाई, इसके बाद उसको वहीं छोड़ उसी के कपड़े पहन महल की तरफ रवाना हुए और वहाँ पहुँचेगा जहाँ चंद्रकांता, चपला और चंपा दस-पाँच लौंडियों के साथ बातें कर रही थीं। लौंडी की सूरत बनाए हुए तेजसिंह भी एक किनारे जा कर बैठ गए।
तेजसिंह को देख चपला बोली - ‘क्यों केतकी, जिस काम के लिए मैंने तुझको भेजा था क्या वह काम तू कर आई जो चुपचाप आ कर बैठ गई है?
चपला की बात सुन तेजसिंह को मालूम हो गया कि जिस लौंडी को मैंने बेहोश किया है और जिसकी सूरत बना कर आया हूँ उसका नाम केतकी है।
नकली केतकी – ‘हाँ काम तो करने गई थी मगर रास्ते में एक नया तमाशा देख तुमसे कुछ कहने के लिए लौट आई हूँ।’
चपला – ‘ऐसा। अच्छा तूने क्या देखा कह?’
नकली केतकी – ‘सभी को हटा दो तो तुम्हारे और राजकुमारी के सामने बात कह सुनाऊँ।’
सब लौंडियाँ हटा दी गईं और केवल चंद्रकांता, चपला और चंपा रह गई। अब केतकी ने हँस कर कहा - ‘कुछ इनाम तो दो खुशखबरी सुनाऊँ।’
चंद्रकांता ने समझा कि शायद वह कुछ वीरेंद्रसिंह की खबर लाई है, मगर फिर यह भी सोचा कि मैंने तो आजतक कभी वीरेंद्रसिंह का नाम भी इसके सामने नहीं लिया तब यह क्या मामला है? कौन-सी खुशखबरी है जिसके सुनाने के लिए यह पहले ही से इनाम माँगती है? आखिर चंद्रकांता ने केतकी से कहा - ‘हाँ, हाँ, इनाम दूँगी, तू कह तो सही, क्या खुशखबरी लाई है?’
केतकी ने कहा - ‘पहले दे दो तो कहूँ, नहीं तो जाती हूँ।’ यह कह उठ कर खड़ी हो गई।
केतकी के ये नखरे देख चपला से न रहा गया और वह बोल उठी - ‘क्यों री केतकी, आज तुझको क्या हो गया है कि ऐसी बढ़-बढ़ कर बातें कर रही है। लगाऊँ दो लात उठ के।’
केतकी ने जवाब दिया - ‘क्या मैं तुझसे कमजोर हूँ जो तू लात लगावेगी और मैं छोड़ दूँगी।’
अब चपला से न रहा गया और केतकी का झोंटा पकड़ने के लिए दौड़ी, यहाँ तक कि दोनों आपस में गूँथ गईं। इत्तिफाक से चपला का हाथ नकली केतकी की छाती पर पड़ा जहाँ की सफाई देख वह घबरा उठी और झट से अलग हो गई।
नकली केतकी - (हँस कर) क्यों, भाग क्यों गई? आओ लड़ो।
चपला अपनी कमर से कटार निकाल सामने हुई और बोली - ‘ओ ऐयार, सच बता तू कौन है, नहीं तो अभी जान ले डालती हूँ।’
इसका जवाब नकली केतकी ने चपला को कुछ न दिया और वीरेंद्रसिंह की चिट्ठी निकाल कर सामने रख दी। चपला की नजर भी इस चिट्ठी पर पड़ी और गौर से देखने लगी। वीरेंद्रसिंह के हाथ की लिखावट देख समझ गई कि यह तेजसिंह हैं, क्योंकि सिवाय तेजसिंह के और किसी के हाथ वीरेंद्रसिंह कभी चिट्ठी नहीं भेजेंगे। यह सोच-समझ चपला शरमा गई और गरदन नीची कर चुप हो रही, मगर जी में तेजसिंह की सफाई और चालाकी की तारीफ करने लगी, बल्कि सच तो यह है कि तेजसिंह की मुहब्बत ने उसके दिल में जगह बना ली।
चंद्रकांता ने बड़ी मुहब्बत से वीरेंद्रसिंह का खत पढ़ा और तब तेजसिंह से बातचीत करने लगी -
चंद्रकांता – ‘क्यों तेजसिंह, उनका मिजाज तो अच्छा है?’
तेजसिंह – ‘मिजाज क्या खाक अच्छा होगा? खाना-पीना सब छूट गया, रोते-रोते आँखें सूज आईं, दिन-रात तुम्हारा ध्यान है, बिना तुम्हारे मिले उनको कब आराम है। हजार समझाता हूँ मगर कौन सुनता है। अभी उसी दिन तुम्हारी चिट्ठी ले कर मैं गया था, आज उनकी हालत देख फिर यहाँ आना पड़ा। कहते थे कि मैं खुद चलूँगा, किसी तरह समझा-बुझा कर यहाँ आने से रोका और कहा कि आज मुझको जाने दो, मैं जा कर वहाँ बंदोबस्त कर आऊँ तब तुमको ले चलूँगा जिससे किसी तरह का नुकसान न हो।’
चंद्रकांता – ‘अफसोस। तुम उनको अपने साथ न लाए, कम-से-कम मैं उनका दर्शन तो कर लेती? देखो यहाँ क्रूरसिंह के दोनों ऐयारों ने इतना ऊधम मचा रखा है कि कुछ कहा नहीं जाता। पिताजी को मैं कितना रोकती और समझाती हूँ कि क्रूरसिंह के दोनों ऐयार मेरे दुश्मन हैं मगर महाराज कुछ नहीं सुनते, क्योंकि क्रूरसिंह ने उनको अपने वश में कर रखा है। मेरी और कुमार की मुलाकात का हाल बहुत कुछ बढ़ा-चढ़ा कर महाराज को न मालूम किस तरह समझा दिया है कि महाराज उसे सच्चों का बादशाह समझ गए हैं, वह हरदम महाराज के कान भरा करता है। अब वे मेरी कुछ भी नहीं सुनते, हाँ आज बहुत कुछ कहने का मौका मिला है क्योंकि आज मेरी प्यारी सखी चपला ने नाजिम को इस पिछवाड़े वाले बाग में गिरफ्तार कर लिया है, कल महाराज के सामने उसको ले जा कर तब कहूँगी कि आप अपने क्रूरसिंह की सच्चाई को देखिए, अगर मेरे पहरे पर मुकर्रर किया ही था तो बाग के अंदर जाने की इजाजात किसने दी थी?’
यह कह कर चंद्रकांता ने नाजिम के गिरफ्तार होने और बाग के तहखाने में कैद करने का सारा हाल तेजसिंह से कह सुनाया।
तेजसिंह चपला की चालाकी सुन कर हैरान हो गए और मन-ही-मन उसको प्यार करने लगे, पर कुछ सोचने के बाद बोले - ‘चपला ने चालाकी तो खूब की मगर धोखा खा गई।’
यह सुन चपला हैरान हो गई हाय राम। मैंने क्या धोखा खाया। पर कुछ समझ में नहीं आया। आखिर न रहा गया, तेजसिंह से पूछा - ‘जल्दी बताओ, मैंने क्या धोखा खाया?’
तेजसिंह ने कहा - ‘क्या तुम इस बात को नहीं जानती थीं कि नाजिम बाग में पहुँचा तो अहमद भी जरूर आया होगा? फिर बाग ही में नाजिम को क्यों छोड़ दिया? तुमको मुनासिब था कि जब उसको गिरफ्तार किया ही था तो महल में ला कर कैद करती या उसी वक्त महाराज के पास भिजवा देती, अब जरूर अहमद नाजिम को छुड़ा ले गया होगा।’
इतनी बात सुनते ही चपला के होश उड़ गए और बहुत शर्मिंदा हो कर बोली - ‘सच है, बड़ी भारी गलती हुई, इसका किसी ने ख्याल न किया।’
तेजसिंह – ‘और कोई क्यों ख्याल करता। तुम तो चालाक बनती हो, ऐयारा कहलाती हो, इसका ख्याल तुमको होना चाहिए कि दूसरों को...? खैर, जाके देखो, वह है या नहीं?
चपला दौड़ी हुई बाग की तरफ गई। तहखाने के पास जाते ही देखा कि दरवाजा खुला पड़ा है। बस फिर क्या था? यकीन हो गया कि नाजिम को अहमद छुड़ा ले गया। तहखाने के अंदर जा कर देखा तो खाली पड़ा हुआ था। अपनी बेवकूफी पर अफसोस करती हुई लौट आई और बोली - ‘क्या कहूँ, सचमुच अहमद नाजिम को छुड़ा ले गया।’
अब तेजसिंह ने छेड़ना शुरू किया - ‘बड़ी ऐयार बनती थी, कहती थी हम चालाक हैं, होशियार हैं, ये हैं, वो हैं। बस एक अदने ऐयार ने नाकों में दम कर डाला।’
चपला झुँझला उठी और चिढ़ कर बोली - ‘चपला नाम नहीं जो अबकी बार दोनों को गिरफ्तार कर इसी कमरे में ला कर बेहिसाब जूतियाँ न लगाऊँ।’
तेजसिंह ने कहा - ‘बस तुम्हारी कारीगिरी देखी गई, अब देखो, मैं कैसे एक-एक को गिरफ्तार कर अपने शहर में ले जा कर कैद करता हूँ।’
इसके बाद तेजसिंह ने अपने आने का पूरा हाल चंद्रकांता और चपला से कह सुनाया और यह भी बतला दिया कि फलाँ जगह पर मैं केतकी को बेहोश कर के डाल आया हूँ, तुम जा कर उसे उठा लाना। उसके कपड़े मैं न दूँगा क्योंकि इसी सूरत से बाहर चला जाता हूँ। देखो, सिवाय तुम तीनों को यह हाल और किसी को न मालूम हो, नहीं तो सब काम बिगड़ जाएगा।
चंद्रकांता ने तेजसिंह से ताकीद की - ‘दूसरे-तीसरे दिन तुम जरूर यहाँ आया करो, तुम्हारे आने से हिम्मत बनी रहती है।’
‘बहुत अच्छा, मैं ऐसा ही करूँगा।’ कह कर तेजसिंह चलने को तैयार हुए।
चंद्रकांता उन्हें जाते देख रो कर बोली - ‘क्यों तेजसिंह, क्या मेरी किस्मत में कुमार की मुलाकात नहीं बदी है?’ इतना कहते ही गला भर आया और वह फूट-फूट कर रोने लगी। तेजसिंह ने बहुत समझाया और कहा कि देखो, यह सब बखेड़ा इसी वास्ते किया जा रहा है जिससे तुम्हारी उनसे हमेशा के लिए मुलाकात हो, अगर तुम ही घबरा जाओगी तो कैसे काम चलेगा? बहुत अच्छी तरह समझा-बुझा कर चंद्रकांता को चुप कराया, तब वहाँ से रवाना हो केतकी की सूरत में दरवाजे पर आए। देखा तो दो-चार प्यादे होश में आए हैं बाकी चित्त पड़े हैं, कोई औंधा पड़ा है, कोई उठा तो है मगर फिर झुका ही जाता है। नकली केतकी ने डपट कर दरबानों से कहा - ‘तुम लोग पहरा देते हो या जमीन सूँघते हो?’ इतनी अफीम क्यों खाते हो कि आँखें नहीं खुलतीं, और सोते हो तो मुर्दों से बाजी लगा कर। देखो, मैं बड़ी रानी से कह कर तुम्हारी क्या दशा कराती हूँ।’
जो चोबदार होश में आ चुके थे, केतकी की बात सुन कर सन्न हो गए और लगे खुशामद करने - ‘देखो केतकी, माफ करो, आज एक नालायक सरकारी चोबदार ने आ कर धोखा दे कर ऐसा जहरीला तंबाकू पिला दिया कि हम लोगों की यह हालत हो गई। उस पाजी ने तो जान से मारना चाहा था, अल्लाह ने बचा दिया नहीं तो मारने में क्या कसर छोड़ी थी। देखो, रोज तो ऐसा नहीं होता था, आज धोखा खा गए। हम हाथ जोड़ते हैं, अब कभी ऐसा देखो तो जो चाहे सजा देना।’
नकली केतकी ने कहा - ‘अच्छा, आज तो छोड़ देती हूँ मगर खबरदार। जो फिर कभी ऐसा हुआ।’ यह कहते हुए तेजसिंह बाहर निकल गए।
डर के मारे किसी ने यह भी न पूछा कि केतकी तू कहाँ जा रही ।