Thursday, April 27, 2017

चन्दामामा , मई, १९८५

चन्दामामा 

मई 

१९८५ 




आज चन्दामामा  पत्रिका का बहुत पुराना अंक प्राप्त हुआ तो सोचा आप सभी तक पंहुचा दूँ। बचपन में इन पत्रिकाओं को पढ़ने का जो सुख था वो आज हॉलीवुड की ब्लॉक बस्टर फिल्में देख कर भी नहीं होता ।  अब तो चन्दामामा  जैसी पत्रिकाएं प्रकाशित होती नहीं और  ऐसी पत्रिकाओं के अकाल पड़ने का कारण हमारे जीवन में तकनीकी का बहुत गहरे पैठ बना लेना है।  आज किसके पास वक्त है कि वो पत्रिका पढ़ सके , हाँ पका पकाया देखना जरूर चाहेगा क्युकी कुछ पढ़ कर कल्पना करने का भी समय नहीं है किसी के पास  और इसीलिए इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हावी होता गया प्रिंट मीडिया पर। 


सिर्फ अपने बचपन की बात करूँ या उन सबके बचपन की जो चन्दामामा जैसी पत्रिकाओं के पाठक रहे हैं , उस ज़माने में टेलीविज़न इतना हावी नहीं था समाज पर। अब टेलीविज़न की बात क्यों की यहाँ पर वो इसलिए कि सुन कर , देख कर और  पढ़ कर ही हम सीखते हैं और उसका अनुकरण करते हैं। आज सबसे ज्यादा क्या सुना और देखा जाता है वो है टेलीविज़न और रही सही कसर पूरी करने में मोबाइल भी पीछे है क्या। हमेशा दिमाग इसी में लगाए रखता है की कहीं घण्टी तो नहीं बजी, भले ही दूसरे के मोबाइल की घण्टी बजी हो पर लोग अपनी जेबें जरूर टटोलने लगते हैं जबकि वो जानते हैं कि ये उनके फ़ोन की रिंगटोन नहीं है फिर भी। हमेशा मैसेज चेक करते रहते हैं कुछ नया तो नहीं आया।  सोशल नेटवर्किंग का अपना मायाजाल है , कृत्रिम समाज बना कर आपको अपने परिवार और समाज से दूर कर रहा है। 


अस्सी के दशक में एक ही चैनल हुआ करता था , गिनती के धारावाहिक होते थे , सप्ताह में एक बार रविवार को फीचर फिल्म और प्रसारण समय सुनिश्चित होता था , ये नहीं की चौबीसों घंटे कुछ न कुछ परोसा जा रहा है टेलीविज़न पर।  साहित्यिक कहानियों और उपन्यास पर आधारित धारावाहिक प्रसारित हुआ करते थे, समाज को कुछ  तो सन्देश मिला करता था।  आज तो ऐसे कार्यक्रम आते हैं कहने को तो समाज को सावधान कर रहे हैं पर फिल्मों से ज्यादा हिंसा और अश्लीलता परोस रहे हैं। ऐसे में युवा और किशोर सावधान होंगे या अपराध के नए तरीके सीखेंगे ?

पहले जीवन में स्पर्धा और ईर्ष्या की भावना कम थी , लोग सहिष्णु थे , संतोषी थे। स्पर्धा और ईर्ष्या की भावना तो शुरू हुई की उसकी साड़ी मेरी साड़ी से सफ़ेद कैसे वाले विज्ञापनों से। आज हर आदमी बेचैन है अंदर ही अंदर , बेचैनी है ज्यादा से ज्यादा सफल होने की , और सफलता का पैमाना तो आप सभी जानते  हैं और वो है पैसा।  जिसके पास जितना ज्यादा पैसा वो उतना ही सफल। उस ज़माने जैसे शब्दों का बार बार प्रयोग करने के पीछे कारण यही  है कि  वास्तव में एक दीवार खड़ी है,  दीवार है तकनीक की , बदलते समाज में पैदा हुई नयी पीढ़ी की सोच की।  

खैर छोड़िये क्युकी समय के साथ चलने की नसीहत देने वाले भी बहुत हैं , और आनंद लीजिये  मई, 1985 में प्रकाशित चन्दामामा के प्रस्तुत अंक का। 










































































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