Wednesday, December 10, 2014

खुदाई फौज़दार , प्रेमचन्द


कथा सम्राट प्रेमचंद की यह कहानी मैंने बहुत पहले यानि की १९८९ में पराग पत्रिका के फरवरी अंक में पढ़ी थी।  पराग का फरवरी १९८९ में प्रकाशित अंक प्रेमचंद को समर्पित था , इस अंक में उनकी चार कहानियाँ शामिल की गयी थीं जिनमे से खुदाई फ़ौज़दार भी एक थी।  

खुदाई फौज़दार 
प्रेमचन्द 





सेठ नानकचन्द को आज फिर वही लिफाफा मिला और वही लिखावट सामने आयी तो उनका चेहरा पीला पड़ गया। लिफाफा खोलते हुए हाथ और ह्रदय दोनों काँपने लगे। खत में क्या हैयह उन्हें खूब मालूम था। इसी तरह के दो खत पहले पा चुके थे। इस तीसरे खत में भी वही धामकियाँ हैंइसमें उन्हें सन्देह न था। पत्र हाथ में लिये हुए आकाश की ओर ताकने लगे। वह दिल के मजबूत आदमी थेधमकियों  से डरना उन्होंने न सीखा थामुर्दों से भी अपनी रकम वसूल कर लेते थे। दया या उपकार जैसी मानवीय दुर्बलताएँ उन्हें छू भी न गयी थींनहीं तो महाजन ही कैसे बनते ! उस पर धर्मनिष्ठ भी थे। हर पूर्णमासी को सत्यनारायण की कथा सुनते थे। हर मंगल को महाबीरजी को लड्डू चढ़ाते थेनित्य-प्रति जमुना में स्नान करते थे और हर एकादशी को व्रत रखते और ब्राह्मणों को भोजन कराते थे और इधार जब से घी में करारा नफा होने लगा थाएक धर्मशाला बनवाने की फिक्र में थे। जमीन ठीक कर ली थी। उनके असामियों में सैकड़ों ही थवई और बेलदार थेजो केवल सूद में काम को तैयार थे। इन्तजार यही था कि कोई ईंट और चूने वाला फँस जाय और दस-बीस हजार का दस्तावेज लिखा लेतो सूद में ईंट और चूना भी मिल जाय। इस धर्मनिष्ठा ने उनकी आत्मा को और भी शक्ति प्रदान कर दी थी। देवताओं के आशीर्वाद और प्रताप से उन्हें कभी किसी सौदे में घाटा नहीं हुआ और भीषण परिस्थितियों में भी वह स्थिरचित्त रहने के आदी थेकिन्तु जब से यह धमकियों  से भरे हुए पत्र मिलने लगे थेउन्हें बरबस तरह-तरह की शंकाएँ व्यथित करने लगी थीं। कहीं सचमुच डाकुओं ने छापा मारातो कौन उनकी सहायता करेगा दैवी बाधाओं में तो देवताओं की सहायता पर वह तकिया कर सकते थेपर सिर पर लटकती हुई इस तलवार के सामने वह श्रद्धा कुछ काम न देती थी। रात को उनके द्वार पर केवल एक चौकीदार रहता है। अगर दस-बीस हथियारबन्द आदमी आ जायॅतो वह अकेला क्या कर सकता है शायद उनकी आहट पाते ही भाग खड़ा हो। पड़ोसियों में ऐसा कोई नज़र न आता थाजो इस संकट में काम आवे। यद्यपि सभी उनके असामी थे या रह चुके थे। लेकिन यह एहसान-फरामोशों का सम्प्रदाय हैजिस पत्तल में खाता हैउसी में छेद करता हैजिसके द्वार पर अवसर पड़ने पर नाक रगड़ता हैउसी का दुश्मन हो जाता है। इनसे कोई आशा नहीं। हाँकिवाड़ें सुदृढ़ हैंउन्हें तोड़ना आसान नहींफिर अन्दर का दरवाजा भी तो है। सौ आदमी लग जायॅ तो हिलाये न हिले। और किसी ओर से हमले का खटका नहीं। इतनी ऊँची सपाट दीवार पर कोई क्या खा के चढ़ेगा फिर उनके पास रायफलें भी तो हैं। एक रायफल से वह दर्जनों आदमियों को भूनकर रख देंगे। मगर इतने प्रतिबन्धों के होते हुए भी उनके मन में एक हूक-सी समायी रहती थी। कौन जाने चौकीदार भी उन्हीं में मिल गया होखिदमतगार भी आस्तीन के साँप हो गये हों ! इसलिए वह अब बहुधा अन्दर ही रहते थे। और जब तक मिलनेवालों का पता-ठिकाना न पूछ लेंउनसे मिलते न थे। फिर भी दो-चार घंटे तो चौपाल में बैठने ही पड़ते थेनहीं तो सारा कारोबार मिट्टी में न मिल जाता ! जितनी देर बाहर रहते थेउनके प्राण जैसे सूली पर टँगे रहते थे। उधार उनके मिजाज में बड़ी तब्दीली हो गयी थी। इतने विनम्र और मिष्टभाषी वह कभी न थे। गालियाँ तो क्याकिसी से तू-तकार भी न करते। सूद की दर भी कुछ घटा दी थीलेकिन फिर भी चित्त को शान्ति न मिलती थी। आखिर कई मिनट तक दिल को मजबूत करने के बाद उन्होंने पत्र खोलाऔर जैसे गोली लग गयी। सिर में चक्कर आ गया और सारी चीजें नाचती हुई मालूम हुईं। साँस फूलने लगीआँखें फैल गयीं। लिखा थातुमने हमारे दोनों पत्रों पर कुछ भी ध्यान न दिया। शायद तुम समझते होगे कि पुलिस तुम्हारी रक्षा करेगी; लेकिन यह तुम्हारा भ्रम है। पुलिस उस वक्त आयेगीजब हम अपना काम करके सौ कोस निकल गये होंगे। तुम्हारी अक्ल पर पत्थर पड़ गया हैइसमें हमारा कोई दोष नहीं। हम तुमसे सिर्फ़ 25 हजार रुपये माँगते हैं। इतने रुपये दे देना तुम्हारे लिए कुछ भी मुश्किल नहीं। हमें पता है कि तुम्हारे पास एक लाख की मोहरें रखी हुई हैंलेकिन विनाशकाले विपरीत बुद्धिअब हम तुम्हें और ज्यादा न समझायेंगे। तुमको समझाने की चेष्टा करना ही व्यर्थ है। आज शाम तक अगर रुपये न आ गयेतो रात को तुम्हारे ऊपर धावा होगा। अपनी हिफाजत के लिए जिसे बुलाना चाहोबुला लोजितने आदमी और हथियार जमा करना चाहोजमा कर लो। हम ललकार कर आयेंगे और दिनदहाड़े आयेंगे। हम चोर नहीं हैंहम वीर हैं और हमारा विश्वास बाहुबल में है। हम जानते हैं कि लक्ष्मी उसी के गले में जयमाल डालती हैजो धनुष तोड़ सकता हैमछली को वेधा सकता है। यदि... सेठ ने तुरन्त बही-खाते बन्द कर दिये और रोकड़ सँभालकर तिजोरी में रख दिया और सामने का द्वार भीतर से बन्द करके मरे हुए से केसर के पास आकर बोले आज फिर वही खत आयाकेसर ! अब आज ही आ रहे हैं। केसर दोहरे बदन की स्त्री थीयौवन बीत जाने पर भी युवती, शौक-सिंगार में लिप्त रहने वालीउस फलहीन वृक्ष की तरहजो पतझड़ में भी हरी-भरी पत्तियों से लदा रहता है। सन्तान की विफल कामना में जीवन का बड़ा भाग बिता चुकने के बादअब उसे अपनी संचित माया को भोगने की धुन सवार रहती थी। मालूम नहींकब आँखें बन्द हो जायॅफिर यह थाती किसके हाथ लगेगीकौन जाने इसलिए उसे सबसे अधिक भय बीमारी का थाजिसे वह मौत का पैगाम समझती थी और नित्य ही कोई-न-कोई दवा खाती रहती थी। काया के इस वस्त्र को उस समय तक उतारना न चाहती थीजब तक उसमें एक तार भी बाकी रहे। बाल-बच्चे होते तो वह मृत्यु का स्वागत करतीलेकिन अब तो उसके जीवन ही के साथ अन्त था, फिर क्यों न वह अधिक-से-अधिक समय तक जिये। हाँवह जीवन निरानन्द अवश्य थाउस मधुर ग्रास की भाँतिजिसे हम इसलिए खा जाते हैं कि रखे-रखे सड़ जायगा। उसने घबड़ाकर कहा मैं तुमसे कब से कह रही हूँ कि दो-चार महीनों के लिए यहाँ से कहीं भाग चलोलेकिन तुम सुनते ही नहीं। आखिर क्या करने पर तुले हुए हो ?
सेठजी सशंक तो थे और यह स्वाभाविक था ऐसी दशा में कौन शान्त रह सकता था लेकिन वह कायर नहीं थे। उन्हें अब भी विश्वास था कि अगर कोई संकट आ पड़े तो वह पीछे कदम न हटायेंगे। जो कुछ कमजोरी आ गयी थीवह संकट को सिर पर मँडराते देखकर भाग गयी थी। हिरन भी तो भागने की राह न पाकर शिकारी पर चोट कर बैठता है। कभी-कभी नहींअक्सर संकट पड़ने पर ही आदमी के जौहर खुलते हैं। इतनी देर में सेठजी ने एक तरह से भावी विपत्ति का सामना करने का पक्का इरादा कर लिया था। डर क्योंजो कुछ होना हैवह होकर रहेगा। अपनी रक्षा करना हमारा कर्तव्य हैमरना-जीना विधि के हाथ में है। सेठानीजी को दिलासा देते हुए बोले, तुम नाहक इतना डरती हो केसरआखिर वे सब भी तो आदमी हैंअपनी जान का मोह उन्हें भी हैनहीं तो यह कुकर्म ही क्यों करते ? मैं खिड़की की आड़ से दस-बीस आदमियों को गिरा सकता हूँ। पुलिस को इत्तला देने भी जा रहा हूँ। पुलिस का कर्तव्य है कि हमारी रक्षा करे। हम दस हजार सालाना टैक्स देते हैंकिसलिए मैं अभी दरोगाजी के पास जाता हूँ। जब सरकार हमसे टैक्स लेती हैतो हमारी मदद करना उसका धर्म हो जाता है। राजनीति का यह तत्त्व उसकी समझ में नहीं आया। वह तो किसी तरह उस भय से मुक्त होना चाहती थीजो उसके दिल में साँप की भाँति बैठा फुफकार रहा था। पुलिस का उसे जो अनुभव थाउससे चित्त को सन्तोष न होता था। बोली पुलिसवालों को बहुत देख चुकी। वारदात के समय तो उनकी सूरत नहीं दिखाई देती। जब वारदात हो चुकती हैतब अलबत्ता शान के साथ आकर रोब जमाने लगते हैं।
'पुलिस तो सरकार का राज चला रही है। तुम क्या जानो ?'
'मैं तो कहती हूँयों अगर कल वारदात होने वाली होगीतो पुलिस को खबर देने से आज ही हो जायगी। लूट के माल में इनका भी साझा होता है।'
'जानता हूँदेख चुका हूँऔर रोज देखता हूँलेकिन मैं सरकार को दस हजार का सालाना टैक्स देता हूँ। पुलिसवालों का आदर-सत्कार भी करता रहता हूँ। अभी जाड़ों में सुपरिंटेंडेंट साहब आये थेतो मैंने कितनी रसद पहुँचायी थी। एक पूरा कनस्तर घी और एक शक्कर की पूरी बोरी भेज दी थी। यह सब खिलाना-पिलाना किस दिन काम आयेगा। हाँआदमी को सोलहो आने दूसरों के भरोसे न बैठना चाहिएइसलिए मैंने सोचा हैतुम्हें भी बन्दूक चलाना सिखा दूं हम दोनों बन्दूकें छोड़ना शुरू करेंगेतो डाकुओं की क्या मजाल है कि अन्दर कदम रख सकें ?'
प्रस्ताव हास्यजनक था।केसर ने मुसकराकर कहा हाँ और क्याअब आज मैं बन्दूक चलाना सीखूँगी ! तुमको जब देखोहँसी ही सूझती है।

'इसमें हँसी की क्या बात है आजकल तो औरतों की फौजें बन रही हैं। सिपाहियों की तरह औरतें भी कवायद करती हैंबन्दूक चलाती हैंमैदानों में खेलती हैं। औरतों के घर में बैठने का जमाना अब नहीं है।'

'विलायत की औरतें बन्दूक चलाती होंगीयहाँ की औरतें क्या चलायेंगी।

हाँहाथ भर की जबान चाहे चला लें।'

'यहाँ की औरतों ने बहादुरी के जो-जो काम किये हैंउनसे इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं। आज दुनिया उन वृत्तान्तों को पढ़कर चकित हो जाती है।'

'पुराने जमाने की बातें छोड़ो। तब औरतें बहादुर रही होंगी। आज कौन बहादुरी कर रही हैं ?'

'वाह ! अभी हजारों औरतें घर-बार छोड़कर हँसते-हँसते जेल चली गयीं।

यह बहादुरी नहीं थी अभी पंजाब में हरनाद कुँवर ने अकेले चार सशस्त्र डाकुओं को गिरफ्तार किया और लाट साहब तक ने उसकी प्रशंसा की।'

'क्या जाने वे कैसी औरतें हैं। मैं तो डाकुओं को देखते ही चक्कर खाकर गिर पङूँगी।'

उसी वक्त नौकर ने आकर कहा सरकारथाने से चार कानिस्टिबिल आये हैं। आपको बुला रहे हैं।
सेठजी प्रसन्न होकर बोले थानेदार भी हैं ?

'नहीं सरकारअकेले कानिस्टिबिल हैं।'

'थानेदार क्यों नहीं आया ?' यह कहते हुए सेठजी ने पान खाया और बाहर निकले।

सेठजी को देखते ही चारों कानिस्टिबिलों ने झुककर सलाम कियाबिलकुल अँगरेजी कायदे सेमानो अपने किसी अफ़सर को सैल्यूट कर रहे हों। सेठजी ने उन्हें बेंचों पर बैठाया और बोले दरोगाजी का मिजाज तो अच्छा है मैं तो उनके पास आनेवाला था।चारों में जो सबसे प्रौढ़ थाजिसकी आस्तीन पर कई बिल्ले लगे हुए थेबोला आप क्यों तकलीफ करते हैंवह तो खुद ही आ रहे थेपर एक बड़ी जरूरी तहकीकात आ गयीइससे रुक गये। कल आपसे मिलेंगे। जबसे यहाँ डाकुओं की खबरें आयी हैंबेचारे बहुत घबराये हुए हैं। आपकी तरफ हमेशा उनका ध्यान रहता है। कई बार कह चुके हैं कि मुझे सबसे ज्यादा फिकर सेठजी की है। गुमनाम खत तो आपके पास भी आये होंगे ?
सेठजी ने लापरवाही दिखाकर कहा अजीऐसी चिट्ठियाँ आती ही रहती हैंइनकी कौन परवाह करता है। मेरे पास तो तीन खत आ चुके हैंमैंने किसी से जिक्र भी नहीं किया।
कानिस्टिबिल हँसा दरोगाजी को खबर मिली थी।
'सच !'
'हाँसाहब रत्ती-रत्ती खबर मिलती रहती है। यहाँ तक मालूम हुआ है कि कल आपके मकान पर उनका धावा होनेवाला है। जभी तो आज दरोगा जी ने मुझे आपकी खिदमत में भेजा।'
'मगर वहाँ कैसे खबर पहुँची मैंने तो किसी से कहा ही नहीं।'
कानिस्टिबिल ने रहस्यमय भाव से कहा हुजूरयह न पूछें। इलाके के सबसे बड़े सेठ के पास ऐसे खत आयें और पुलिस को खबर न हो !
भलाकोई बात है। फिर ऊपर से बराबर ताकीद आती रहती है कि सेठजी को शिकायत का कोई मौका न दिया जाय। सुपरिंटेंडेंट साहब की खास ताकीद है आपके लिए। और हुजूरसरकार भी तो आप ही के बूते पर चलती है।
सेठ-साहूकारों के जान-माल की हिफाजत न करेतो रहे कहाँ हमारे होते मजाल है कि कोई आपकी तरफ तिरछी आँखों से देख सकेमगर यह कम्बख्त डाकू इतने दिलेर और तादाद में इतने ज्यादा हैं कि थाने के बाहर उनसे मुकाबिला करना मुश्किल है। दरोगाजी गारद मँगाने की बात सोच रहे थे;
मगर ये हत्यारे कहीं एक जगह तो रहते नहींआज यहाँ हैंतो कल यहाँ से दो सौ कोस पर। गारद मँगाकर ही क्या किया जाय इलाके की रिआया की तो हमें ज्यादा फिक्र नहींहुजूर मालिक हैंआपसे क्या छिपायेंकिसके पास रखा है इतना माल-असबाब ! और अगर किसी के पास दो-चार सौ
की पूँजी निकल ही आयी तो उसके लिए पुलिस डाकुओं के पीछे अपनी जान हथेली पर लिये न फिरेगी। उन्हें क्यावह तो छूटते ही गोली चलाते हैं और अक्सर छिपकर। हमारे लिए तो हजार बन्दिशें हैं। कोई बात बिगड़ जाय तो उलटे अपनी ही जान आफत में फँस जाय। हमें तो ऐसे रास्ते चलना है कि साँप मरे और लाठी न टूटेइसलिए दरोगाजी ने आपसे यह अर्ज करने को कहा है कि आपके पास जोखिम की जो चीज़ें होंउन्हें लाकर सरकारी खजाने में जमा कर दीजिए। आपको उसकी रसीद दे दी जायगी। ताला और मुहर आप ही की रहेगी। जब यह हंगामा ठण्डा हो जाय तो मँगवा लीजिएगा।
इससे आपको भी बेफिक्री हो जायगी और हम भी जिम्मेदारी से बच जायॅगे।
नहीं खुदा न करेकोई वारदात हो जायतो हुजूर को तो जो नुकसान हो वह तो हो ही हमारे ऊपर भी जवाबदेही आ जाय। और यह जालिम सिर्फ माल-असबाब लेकर ही तो जान नहीं छोड़ते ख़ून करते हैंघर में आग लगा देते हैंयहाँ तक कि औरतों की बेइज्जती भी करते हैं। हुजूर तो जानते हैंहोता है वही जो तकदीर में लिखा है। आप इकबालवाले आदमी हैंडाकू आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। सारा कस्बा आपके लिए जान देने को तैयार है। आपका पूजा-पाठधर्म-कर्म खुदा खुद देख रहा है। यह उसी की बरकत है कि आप मिट्टी भी छू लेंतो सोना हो जायलेकिन आदमी भरसक अपनी हिफाजत करता है। हुजूर के पास मोटर है हीजो कुछ रखना होउस पर रख दीजिए। हम चार आदमी आपके साथ हैंकोई खटका नहीं। वहाँ एक मिनट में आपको फुरसत हो जायगी। पता चला है कि इस गोल में बीस जवान हैं। दो तो बैरागी बने हुए हैंदो पंजाबियों के भेस में धुस्से और अलवान बेचते फिरते हैं। इन दोनों के साथ दो बहँगीवाले भी हैं। दो आदमी बलूचियों के भेस में छूरियाँ और ताले बेचते हैं। कहाँ तक गिनाऊँहुजूर ! हमारे थाने में तो हर एक का हुलिया रखा हुआ है।
खतरे में आदमी का दिल कमजोर हो जाता है और वह ऐसी बातों पर विश्वास कर लेता हैजिन पर शायद होश-हवास में न करता। जब किसी दवा से रोगी को लाभ नहीं होतातो हम दुआताबीजओझों और सयानों की शरण लेते हैं और वहाँ तो सन्देह करने का कोई कारण ही न था। सम्भव हैदरोगाजी का कुछ स्वार्थ होमगर सेठजी इसके लिए तैयार थे। अगर दो-चार सौ बल खाने पड़ेंतो कोई बड़ी बात नहीं। ऐसे अवसर तो जीवन में आते ही रहते हैं और इस परिस्थिति में इससे अच्छा दूसरा क्या इन्तजाम हो सकता थाबल्कि इसे तो ईश्वरीय प्रेरणा समझना चाहिए। मानाउनके पास दो-दो बन्दूकें हैंकुछ लोग मदद करने के लिए निकल ही आयेंगेलेकिन है जान जोखिम। उन्होंने निश्चय कियादरोगाजी की इस कृपा से लाभ उठाना चाहिए। इन्हीं आदमियों को कुछ दे-दिलाकर सारी चीजें निकलवा लेंगे। दूसरों का क्या भरोसा कहीं कोई चीज़ उड़ा दें तो बस ?
उन्होंने इस भाव से कहामानो दरोगाजी ने उन पर कोई विशेष कृपा नहीं की हैवह तो उनका कर्तव्य ही था मैंने यहाँ ऐसा प्रबन्ध किया था कि यहाँ वह सब आते तो उनके दॉत खट्टे कर दिये जाते। सारा कस्बा मदद के लिए तैयार था। सभी से तो अपना मित्र-भाव हैलेकिन दरोगाजी की तजवीज मुझे पसन्द है। इससे वह भी अपनी जिम्मेदारी से बरी हो जाते हैं और मेरे सिर से भी फिक्र का बोझ उतर जाता हैलेकिन भीतर से चीजें बाहर निकाल-निकालकर लाना मेरे बूते की बात नहीं। आप लोगों की दुआ से नौकर-चाकरों की तो कमी नहीं हैमगर किसकी नीयत कैसी हैकौन जान सकता है आप लोग कुछ मदद करें तो काम आसान हो जाय। हेड कानिस्टिबिल ने बड़ी खुशी से यह सेवा स्वीकार कर ली और बोलाहम सब हुजूर के ताबेदार हैंइसमें मदद की कौन-सी बात है तलब सरकार से पाते हैंयह ठीक हैमगर देनेवाले तो आप ही हैं। आप केवल सामान हमें दिखाये जायॅहम बात-की-बात में सारी चीज़ें निकाल लायेंगे। हुजूर की खिदमत करेंगे तो कुछ इनाम-इकराम मिलेगा ही। तनख्वाह में गुजर नहीं होता सेठजीआप लोगों की रहम की निगाह न होतो एक दिन भी निबाह न हो। बाल-बच्चे भूखों मर जायॅ पन्द्रह-बीस रुपये में क्या होता है हुजूरइतना तो हमारे लिए ही पूरा नहीं पड़ता।

सेठजी ने अन्दर जाकर केसर से यह समाचार कहा तो उसे जैसे आँखें मिल गयीं। बोली, भगवान् ने सहायता कीनहीं मेरे प्राण संकट में पड़े हुए थे।

सेठजी ने सर्वज्ञता के भाव से फरमाया इसी को कहते हैं सरकार का इंतजाम ! इसी मुस्तैदी के बल पर सरकार का राज थमा हुआ है। कैसी सुव्यवस्था है कि जरा-सी कोई बात होवहाँ तक खबर पहुँच जाती है और तुरन्त उसकी रोकथाम का हुक्म हो जाता है। और यहाँ वाले ऐसे बुध्दू हैं कि स्वराज्य-स्वराज्य चिल्ला रहे हैं। इनके हाथ में अख्तियार आ जाय तो दिन-दोपहर लूट मच जायकोई किसी की न सुने। ऊपर से ताकीद आयी है। हाकिमों का आदर-सत्कार कभी निष्फल नहीं जाता। मैं तो सोचता हूँ, कोई बहुमूल्य वस्तु घर में न छोङूँ। साले आयें तो अपना-सा मुँह लेकर रह जायॅ।

केसर ने मन-ही-मन प्रसन्न होकर कहा क़ुंजी उनके सामने फेंक देना कि जो चीज चाहो निकाल ले जाओ।

'साले झेंप जायेंगे।'

'मुँह में कालिख लग जायेगी।'

'घमण्ड तो देखो कि तिथि तक बता दी। यह नहीं समझे कि अंग्रेजी सरकार का राज है। तुम डाल-डाल चलोतो वह पात-पात चलते हैं।'

'समझे होंगे कि धमकी में आ जायेंगे।'

तीन कानिस्टिबिलों ने आकर सन्दूकचे और सेफ निकालने शुरू किये।

एक बाहर सामान को मोटर पर लाद रहा था और एक हरेक चीज को नोटबुक पर टॉकता जाता था। आभूषणमुहरेंनोटरुपयेकीमती कपड़ेसाड़ियाँ; लहँगेशाल-दुशालेसब कार में रख दिये। मामूली बरतनलोहे-लकड़ी के सामानफर्श आदि के सिवा घर में और कुछ न बचा। और डाकुओं के लिए ये चीज़ें कौड़ी की भी नहीं। केसर का सिंगारदान खुद सेठजी लाये और हेड के हाथ में देकर बोले इसे बड़ी हिफाजत से रखना भाई !
हेड ने सिंगारदान लेकर कहा मेरे लिए एक-एक तिनका इतना ही कीमती है।
सेठजी के मन में एक सन्देह उठा। पूछा, ख़जाने की कुंजी तो मेरे ही पास रहेगी ?
'और क्यायह तो मैं पहले ही अर्ज कर चुकामगर यह सवाल आपके दिल से क्यों पैदा हुआ ?'
'योंहीपूछा थासेठजी लज्जित हो गये।
'नहींअगर आपके दिल में कुछ शुबहा होतो हम लोग यहाँ भी आप की खिदमत के लिए हाजिर हैं। हाँहम जिम्मेदार न होंगे।'
'अजी नहीं हेड साहबमैंने योंही पूछ लिया था। यह फिहरिस्त तो मुझे दे दोगे न ?'
'फिहरिस्त आपको थाने में दरोगाजी के दस्तखत से मिलेगी। इसका क्या एतबार ?'
कार पर सारा सामान रख दिया गया। कस्बे के सैकड़ों आदमी तमाशा देख रहे थे। कार बड़ी थीपर ठसाठस भरी हुई थी। बड़ी मुश्किल से सेठजी के लिए जगह निकली। चारों कानिस्टिबिल आगे की सीट पर सिमटकर बैठे। कार चली। केसर द्वार पर इस तरह खड़ी थीमानो उसकी बेटी बिदा हो रही हो। बेटी ससुराल जा रही हैजहाँ वह मालकिन बनेगीलेकिन उसका घर सूना किये जा रही है।
थाना यहाँ से पाँच मील पर था। कस्बे से बाहर निकलते ही पहाड़ों का पथरीला सन्नाटा थाजिसके दामन में हरा-भरा मैदान था और इसी मैदान के बीच में लाल मोरम की सड़क चक्कर खाती हुई लाल साँप-जैसी निकल गयी थी।
हेड ने सेठजी से पूछा यह कहाँ तक सही है सेठजीकि आज से पच्चीस साल पहले आपके बाप केवल लोटा-डोर लेकर यहाँ खाली हाथ आये थे ? सेठजी ने गर्व करते हुए कहा 'बिलकुल सही है। मेरे पास कुल तीन रुपये थे। उसी से आटे-दाल की दूकान खोली थी। तकदीर का खेल हैभगवान् की दया चाहिएआदमी के बनते-बिगड़ते देर नहीं लगती। लेकिन मैंने कभी पैसे को दॉतों से नहीं पकड़ा। यथाशक्ति धर्म का पालन करता गया। धान की शोभा धर्म ही से हैनहीं तो धान से कोई फायदा नहीं।'
'आप बिलकुल ठीक कहते हैं सेठजी। आपको मूरत बनाकर पूजना चाहिए। तीन रुपये से लाख कमा लेना मामूली काम नहीं है !'

'आधी रात तक सिर उठाने की फुरसत नहीं मिलतीखाँ साहब !'

'आपको तो यह सब कारोबार जंजाल-सा लगता होगा।'
'जंजाल तो है हीमगर भगवान् की ऐसी माया है कि आदमी सबकुछ समझकर भी इसमें फँस जाता है और सारी उम्र फँसा रहता है। मौत आ जाती हैतभी छुट्टी मिलती है। बसयही अभिलाषा है कि कुछ यादगार छोड़ जाऊँ।'

'आपके कोई औलाद हुई ही नहीं ?'

'भाग्य में न थी खाँ साहबऔर क्या कहूँ ! जिनके घर में भूनी भाँग नहीं हैउनके यहाँ घास-फूस की तरह बच्चे-ही-बच्चे देख लोजिन्हें भगवान् ने खाने को दिया हैवे सन्तान का मुँह देखने को तरसते हैं।'
'आप बिलकुल ठीक कहते हैंसेठजी ! जिन्दगी का मजा सन्तान से है। जिसके आगे अन्धेरा हैउसके लिए धान-दौलत किस काम की ?'

'ईश्वर की यही इच्छा है तो आदमी क्या करे। मेरा बस चलतातो मायाजाल से निकल भागता खाँ साहबएक क्षण भी यहाँ न रहताकहीं तीर्थस्थान में बैठकर भगवान् का भजन करता। मगर करूँ क्या मायाजाल तोड़े नहीं टूटता।'
'एक बार दिल मजबूत करके तोड़ क्यों नहीं देते सब उठाकर गरीबों को बॉट दीजिए। साधु-सन्तों को नहींन मोटे ब्राह्मणों को बल्कि उनको, जिनके लिए यह जिन्दगी बोझ हो रही हैजिसकी यही एक आरजू है कि मौत आकर उनकी विपत्ति का अन्त कर दे।'
'इस मायाजाल को तोड़ना आदमी का काम नहीं हैखाँ साहब ! भगवान् की इच्छा होती हैतभी मन में वैराग्य आता है।'
'आज भगवान् ने आपके ऊपर दया की है। हम इस मायाजाल को मकड़ी के जाले की तरह तोड़कर आपको आजाद करने के लिए भेजे गये हैं। भगवान् आपकी भक्ति से प्रसन्न हो गये हैं और आपको इस बन्धन में नहीं रखना चाहतेजीवन-मुक्त कर देना चाहते हैं।'
'ऐसी भगवान् की दया हो जातीतो क्या पूछना खाँ साहब !' 'भगवान् की ऐसी ही दया है सेठजीविश्वास मानिए। हमें इसीलिए उन्होंने मृत्युलोक में तैनात किया है। हम कितने ही मायाजाल के कैदियों की बेड़ियाँ काट चुके हैं। आज आपकी बारी है।'
सेठजी की नाड़ियों में जैसे रक्त का प्रवाह बन्द हो गया। सहमी हुई आँखों से सिपाहियों को देखा। फिर बोले, आप बड़े हँसोड़ होखाँ साहब ?
'हमारे जीवन का सिद्धान्त है कि किसी को कष्ट मत दोलेकिन ये रुपये वाले कुछ ऐसी औंधी खोपड़ी के लोग हैं कि जो उनका उद्धार करने आता हैउसी के दुश्मन हो जाते हैं। हम आपकी बेड़ियाँ काटने आये हैं; लेकिन अगर आपसे कहें कि यह सब जमा-जथा और लता-पता छोड़कर घर
की राह लीजिएतो आप चीखना-चिल्लाना शुरू कर देंगे। हम लोग वही खुदाई फौजदार हैंजिनके इत्तलाई खत आपके पास पहुँच चुके हैं।'
सेठजी मानो आकाश से पाताल में गिर पड़े। सारी ज्ञानेन्द्रियों ने जवाब दे दिया और इसी मूर्च्छा की दशा में वह मोटरकार से नीचे ढकेल दिये गये और गाड़ी चल पड़ी।
सेठजी की चेष्टा जाग पड़ी। बदहवास गाड़ी के पीछे दौड़े हुजूरसरकार, तबाह हो जायॅगेदया कीजिएघर में एक कौड़ी भी नहीं है...
हेड साहब ने खिड़की से बाहर हाथ निकाला और तीन रुपये जमीन पर फेंक दिये। मोटर की चाल तेज हो गयी।
सेठजी सिर पकड़कर बैठ गये और विक्षिप्त नेत्रों से मोटरकार को देखा, जैसे कोई शव स्वर्गारोही प्राण को देखे। उनके जीवन का स्वप्न उड़ा चला जा रहा था।


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