कथा सम्राट प्रेमचंद की यह कहानी मैंने बहुत पहले यानि की १९८९ में पराग पत्रिका के फरवरी अंक में पढ़ी थी। पराग का फरवरी १९८९ में प्रकाशित अंक प्रेमचंद को समर्पित था , इस अंक में उनकी चार कहानियाँ शामिल की गयी थीं जिनमे से खुदाई फ़ौज़दार भी एक थी।
खुदाई फौज़दार
प्रेमचन्द
सेठ
नानकचन्द को आज फिर वही लिफाफा मिला और वही लिखावट सामने आयी तो उनका चेहरा पीला
पड़ गया। लिफाफा खोलते हुए हाथ और ह्रदय दोनों काँपने लगे। खत में क्या है, यह
उन्हें खूब मालूम था। इसी तरह के दो खत पहले पा चुके थे। इस तीसरे खत में भी वही
धामकियाँ हैं, इसमें
उन्हें सन्देह न था। पत्र हाथ में लिये हुए आकाश की ओर ताकने लगे। वह दिल के मजबूत
आदमी थे, धमकियों से
डरना उन्होंने न सीखा था, मुर्दों
से भी अपनी रकम वसूल कर लेते थे। दया या उपकार जैसी मानवीय दुर्बलताएँ उन्हें छू
भी न गयी थीं, नहीं
तो महाजन ही कैसे बनते ! उस पर धर्मनिष्ठ भी थे। हर पूर्णमासी को सत्यनारायण की
कथा सुनते थे। हर मंगल को महाबीरजी को लड्डू चढ़ाते थे, नित्य-प्रति
जमुना में स्नान करते थे और हर एकादशी को व्रत रखते और ब्राह्मणों को भोजन कराते
थे और इधार जब से घी में करारा नफा होने लगा था, एक
धर्मशाला बनवाने की फिक्र में
थे। जमीन ठीक कर ली थी। उनके असामियों में सैकड़ों ही थवई और बेलदार थे, जो
केवल सूद में काम को तैयार थे। इन्तजार यही था कि कोई ईंट और चूने वाला फँस जाय और
दस-बीस हजार का दस्तावेज लिखा ले, तो
सूद में ईंट और चूना भी मिल जाय। इस धर्मनिष्ठा ने उनकी आत्मा को और भी शक्ति
प्रदान कर दी थी। देवताओं के आशीर्वाद और प्रताप से उन्हें कभी किसी सौदे में घाटा
नहीं हुआ और भीषण परिस्थितियों में भी वह स्थिरचित्त रहने के आदी थे; किन्तु
जब से यह धमकियों से भरे हुए पत्र मिलने लगे थे, उन्हें
बरबस तरह-तरह की शंकाएँ व्यथित करने लगी थीं। कहीं सचमुच डाकुओं ने छापा मारा, तो
कौन उनकी सहायता करेगा ? दैवी
बाधाओं में तो देवताओं की सहायता पर वह तकिया कर सकते थे, पर
सिर पर लटकती हुई इस तलवार के सामने वह श्रद्धा कुछ काम न देती थी। रात को उनके द्वार
पर केवल एक चौकीदार रहता है। अगर दस-बीस हथियारबन्द आदमी आ जायॅ, तो
वह अकेला क्या कर सकता है ? शायद
उनकी आहट पाते ही भाग खड़ा हो। पड़ोसियों में ऐसा कोई नज़र न आता था, जो
इस संकट में काम आवे। यद्यपि सभी उनके असामी थे या रह चुके थे। लेकिन यह एहसान-फरामोशों
का सम्प्रदाय है, जिस
पत्तल में खाता है, उसी
में छेद करता है; जिसके
द्वार पर अवसर पड़ने पर नाक रगड़ता है, उसी
का दुश्मन हो जाता है। इनसे कोई आशा नहीं। हाँ, किवाड़ें
सुदृढ़ हैं; उन्हें तोड़ना आसान नहीं, फिर
अन्दर का दरवाजा भी तो है। सौ आदमी लग जायॅ तो हिलाये न हिले। और किसी ओर से हमले
का खटका नहीं। इतनी ऊँची सपाट दीवार पर कोई क्या खा के चढ़ेगा ? फिर
उनके पास रायफलें भी तो हैं। एक रायफल से
वह दर्जनों आदमियों को भूनकर रख देंगे। मगर इतने प्रतिबन्धों के होते हुए भी उनके
मन में एक हूक-सी समायी रहती थी। कौन जाने चौकीदार भी उन्हीं में मिल गया हो, खिदमतगार
भी आस्तीन के साँप हो गये हों ! इसलिए वह अब बहुधा अन्दर ही रहते थे। और जब तक
मिलनेवालों का पता-ठिकाना न पूछ लें, उनसे
मिलते न थे। फिर भी दो-चार घंटे तो चौपाल में बैठने ही पड़ते थे; नहीं
तो सारा कारोबार मिट्टी में न मिल जाता ! जितनी देर बाहर रहते थे, उनके
प्राण जैसे सूली पर टँगे रहते थे। उधार उनके मिजाज में बड़ी तब्दीली हो गयी थी।
इतने विनम्र और मिष्टभाषी वह कभी न थे। गालियाँ तो क्या, किसी
से तू-तकार भी न करते। सूद की दर भी कुछ घटा दी थी; लेकिन
फिर भी चित्त को शान्ति न मिलती थी। आखिर कई मिनट तक दिल को मजबूत करने के बाद
उन्होंने पत्र खोला, और
जैसे गोली लग गयी। सिर में चक्कर आ गया और सारी चीजें नाचती हुई मालूम हुईं। साँस फूलने
लगी, आँखें फैल गयीं।
लिखा था, तुमने हमारे दोनों
पत्रों पर कुछ भी ध्यान न दिया। शायद तुम समझते होगे कि पुलिस तुम्हारी रक्षा
करेगी; लेकिन यह तुम्हारा भ्रम है।
पुलिस उस वक्त आयेगी, जब
हम अपना काम करके सौ कोस निकल गये होंगे। तुम्हारी अक्ल पर पत्थर पड़ गया है, इसमें
हमारा कोई दोष नहीं। हम तुमसे सिर्फ़ 25 हजार रुपये माँगते
हैं। इतने रुपये दे देना तुम्हारे लिए कुछ भी मुश्किल नहीं। हमें पता है कि
तुम्हारे पास एक लाख की मोहरें रखी हुई हैं; लेकिन
विनाशकाले विपरीत बुद्धि; अब
हम तुम्हें और ज्यादा न समझायेंगे। तुमको समझाने की चेष्टा करना ही व्यर्थ है। आज शाम
तक अगर रुपये न आ गये, तो
रात को तुम्हारे ऊपर धावा होगा। अपनी हिफाजत के लिए जिसे बुलाना चाहो, बुला
लो, जितने आदमी और
हथियार जमा करना चाहो, जमा
कर लो। हम ललकार कर आयेंगे और दिनदहाड़े आयेंगे। हम चोर नहीं हैं, हम
वीर हैं और हमारा विश्वास बाहुबल में है। हम जानते हैं कि लक्ष्मी उसी के गले में
जयमाल डालती है, जो
धनुष तोड़ सकता है, मछली
को वेधा सकता है। यदि... सेठ ने तुरन्त बही-खाते बन्द कर दिये और रोकड़ सँभालकर
तिजोरी में रख दिया और सामने का द्वार भीतर से बन्द करके मरे हुए से केसर के पास
आकर बोले आज फिर वही खत आया, केसर
! अब आज ही आ रहे हैं। केसर दोहरे बदन की स्त्री थी, यौवन
बीत जाने पर भी युवती, शौक-सिंगार में
लिप्त रहने वाली, उस
फलहीन वृक्ष की तरह, जो
पतझड़ में भी हरी-भरी पत्तियों से लदा रहता है। सन्तान की विफल कामना में जीवन का
बड़ा भाग बिता चुकने के बाद, अब
उसे अपनी संचित माया को भोगने की धुन सवार रहती थी। मालूम नहीं, कब
आँखें बन्द हो जायॅ, फिर
यह थाती किसके हाथ लगेगी, कौन
जाने ? इसलिए
उसे सबसे अधिक भय बीमारी का था, जिसे
वह मौत का पैगाम समझती थी और नित्य ही कोई-न-कोई दवा खाती रहती थी। काया के इस
वस्त्र को उस समय तक उतारना न चाहती थी, जब
तक उसमें एक तार भी बाकी रहे। बाल-बच्चे होते तो वह मृत्यु का स्वागत करती, लेकिन
अब तो उसके जीवन ही के साथ अन्त था, फिर क्यों न वह
अधिक-से-अधिक समय तक जिये। हाँ, वह
जीवन निरानन्द अवश्य था, उस
मधुर ग्रास की भाँति, जिसे
हम इसलिए खा जाते हैं कि रखे-रखे सड़ जायगा। उसने घबड़ाकर कहा मैं तुमसे कब से कह
रही हूँ कि दो-चार महीनों के लिए यहाँ से कहीं भाग चलो, लेकिन
तुम सुनते ही नहीं। आखिर क्या करने पर तुले हुए हो ?
सेठजी सशंक तो थे और
यह स्वाभाविक था ऐसी दशा में कौन शान्त रह सकता था लेकिन वह कायर नहीं थे। उन्हें
अब भी विश्वास था कि अगर कोई संकट आ पड़े तो वह पीछे कदम न हटायेंगे। जो कुछ कमजोरी
आ गयी थी, वह संकट को सिर पर
मँडराते देखकर भाग गयी थी। हिरन भी तो भागने की राह न पाकर शिकारी पर चोट कर बैठता
है। कभी-कभी नहीं, अक्सर
संकट पड़ने पर ही आदमी के जौहर खुलते हैं। इतनी देर में सेठजी ने एक तरह से भावी
विपत्ति का सामना करने का पक्का इरादा कर लिया था। डर क्यों, जो
कुछ होना है, वह
होकर रहेगा। अपनी रक्षा करना हमारा कर्तव्य है, मरना-जीना
विधि के हाथ में है। सेठानीजी को दिलासा देते हुए बोले, तुम
नाहक इतना डरती हो केसर, आखिर
वे सब भी तो आदमी हैं, अपनी
जान का मोह उन्हें भी है, नहीं
तो यह कुकर्म ही क्यों करते ? मैं
खिड़की की आड़ से दस-बीस आदमियों को गिरा सकता हूँ। पुलिस को इत्तला देने भी जा रहा
हूँ। पुलिस का कर्तव्य है कि हमारी रक्षा करे। हम दस हजार सालाना टैक्स देते हैं, किसलिए ? मैं
अभी दरोगाजी के पास जाता हूँ। जब सरकार हमसे टैक्स लेती है, तो
हमारी मदद करना उसका धर्म हो जाता है। राजनीति का यह तत्त्व उसकी समझ में नहीं
आया। वह तो किसी तरह उस भय से मुक्त होना चाहती थी, जो
उसके दिल में साँप की भाँति बैठा फुफकार रहा था। पुलिस का उसे जो अनुभव था, उससे
चित्त को सन्तोष न होता था। बोली पुलिसवालों को बहुत देख चुकी। वारदात के समय तो उनकी
सूरत नहीं दिखाई देती। जब वारदात हो चुकती है, तब
अलबत्ता शान के साथ आकर रोब जमाने लगते हैं।
'पुलिस तो सरकार का
राज चला रही है। तुम क्या जानो ?'
'मैं तो कहती हूँ, यों
अगर कल वारदात होने वाली होगी, तो
पुलिस को खबर देने से आज ही हो जायगी। लूट के माल में इनका भी साझा होता है।'
'जानता हूँ, देख
चुका हूँ, और रोज देखता हूँ; लेकिन
मैं सरकार को दस हजार का सालाना टैक्स देता हूँ। पुलिसवालों का आदर-सत्कार भी करता
रहता हूँ। अभी जाड़ों में सुपरिंटेंडेंट साहब आये थे, तो
मैंने कितनी रसद पहुँचायी थी। एक पूरा कनस्तर घी और एक शक्कर की पूरी बोरी भेज दी थी।
यह सब खिलाना-पिलाना किस दिन काम आयेगा। हाँ, आदमी
को सोलहो आने दूसरों के भरोसे न बैठना चाहिए; इसलिए
मैंने सोचा है, तुम्हें
भी बन्दूक चलाना सिखा दूं ? हम
दोनों बन्दूकें छोड़ना शुरू करेंगे, तो
डाकुओं की क्या मजाल है कि अन्दर कदम रख सकें ?'
प्रस्ताव हास्यजनक
था।केसर ने मुसकराकर कहा हाँ और क्या, अब
आज मैं बन्दूक चलाना सीखूँगी ! तुमको जब देखो, हँसी
ही सूझती है।
'इसमें हँसी की क्या
बात है ? आजकल
तो औरतों की फौजें बन रही हैं। सिपाहियों की तरह औरतें भी कवायद करती हैं, बन्दूक
चलाती हैं, मैदानों में खेलती
हैं। औरतों के घर में बैठने का जमाना अब नहीं है।'
'विलायत की औरतें
बन्दूक चलाती होंगी, यहाँ
की औरतें क्या चलायेंगी।
हाँ, हाथ
भर की जबान चाहे चला लें।'
'यहाँ की औरतों ने
बहादुरी के जो-जो काम किये हैं, उनसे
इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं। आज दुनिया उन वृत्तान्तों को पढ़कर चकित हो जाती है।'
'पुराने जमाने की
बातें छोड़ो। तब औरतें बहादुर रही होंगी। आज कौन बहादुरी कर रही हैं ?'
'वाह ! अभी हजारों
औरतें घर-बार छोड़कर हँसते-हँसते जेल चली गयीं।
यह बहादुरी नहीं थी ? अभी
पंजाब में हरनाद कुँवर ने अकेले चार सशस्त्र डाकुओं को गिरफ्तार किया और लाट साहब
तक ने उसकी प्रशंसा की।'
'क्या जाने वे कैसी
औरतें हैं। मैं तो डाकुओं को देखते ही चक्कर खाकर गिर पङूँगी।'
उसी वक्त नौकर ने
आकर कहा सरकार, थाने
से चार कानिस्टिबिल आये हैं। आपको बुला रहे हैं।
सेठजी प्रसन्न होकर
बोले थानेदार भी हैं ?
'नहीं सरकार, अकेले
कानिस्टिबिल हैं।'
'थानेदार क्यों नहीं
आया ?' यह
कहते हुए सेठजी ने पान खाया और बाहर निकले।
सेठजी को देखते ही
चारों कानिस्टिबिलों ने झुककर सलाम किया, बिलकुल
अँगरेजी कायदे से, मानो
अपने किसी अफ़सर को सैल्यूट कर रहे हों। सेठजी ने उन्हें बेंचों पर बैठाया और बोले
दरोगाजी का मिजाज तो अच्छा है ? मैं
तो उनके पास आनेवाला था।चारों में जो सबसे
प्रौढ़ था, जिसकी आस्तीन पर कई
बिल्ले लगे हुए थे, बोला
आप क्यों तकलीफ करते हैं, वह
तो खुद ही आ रहे थे; पर
एक बड़ी जरूरी तहकीकात आ गयी, इससे
रुक गये। कल आपसे मिलेंगे। जबसे यहाँ डाकुओं की खबरें आयी हैं, बेचारे
बहुत घबराये हुए हैं। आपकी तरफ हमेशा उनका ध्यान रहता है। कई बार कह चुके हैं कि
मुझे सबसे ज्यादा फिकर सेठजी की है। गुमनाम खत तो आपके पास भी आये होंगे ?
सेठजी ने लापरवाही
दिखाकर कहा अजी, ऐसी
चिट्ठियाँ आती ही रहती हैं, इनकी
कौन परवाह करता है। मेरे पास तो तीन खत आ चुके हैं, मैंने
किसी से जिक्र भी
नहीं किया।
कानिस्टिबिल हँसा
दरोगाजी को खबर मिली थी।
'सच !'
'हाँ, साहब ? रत्ती-रत्ती
खबर मिलती रहती है। यहाँ तक मालूम हुआ है कि कल आपके मकान पर उनका धावा होनेवाला
है। जभी तो आज दरोगा जी ने मुझे आपकी खिदमत में भेजा।'
'मगर वहाँ कैसे खबर
पहुँची ? मैंने
तो किसी से कहा ही नहीं।'
कानिस्टिबिल ने
रहस्यमय भाव से कहा हुजूर, यह
न पूछें। इलाके के सबसे बड़े सेठ के पास ऐसे खत आयें और पुलिस को खबर न हो !
भला, कोई
बात है। फिर ऊपर से बराबर ताकीद आती रहती है कि सेठजी को शिकायत का कोई मौका न
दिया जाय। सुपरिंटेंडेंट साहब की खास ताकीद है आपके लिए। और हुजूर, सरकार
भी तो आप ही के बूते पर चलती है।
सेठ-साहूकारों के
जान-माल की हिफाजत न करे, तो
रहे कहाँ ? हमारे
होते मजाल है कि कोई आपकी तरफ तिरछी आँखों से देख सके; मगर
यह कम्बख्त डाकू इतने दिलेर और तादाद में इतने ज्यादा हैं कि थाने के बाहर उनसे मुकाबिला
करना मुश्किल है। दरोगाजी गारद मँगाने की बात सोच रहे थे;
मगर ये हत्यारे कहीं
एक जगह तो रहते नहीं, आज
यहाँ हैं, तो कल यहाँ से दो सौ
कोस पर। गारद मँगाकर ही क्या किया जाय ? इलाके
की रिआया की तो हमें ज्यादा फिक्र नहीं, हुजूर
मालिक हैं, आपसे क्या छिपायें, किसके
पास रखा है इतना माल-असबाब ! और अगर किसी के पास दो-चार सौ
की पूँजी निकल ही
आयी तो उसके लिए पुलिस डाकुओं के पीछे अपनी जान हथेली पर लिये न फिरेगी। उन्हें
क्या, वह तो छूटते ही गोली
चलाते हैं और अक्सर छिपकर। हमारे लिए तो हजार बन्दिशें हैं। कोई बात बिगड़ जाय तो उलटे
अपनी ही जान आफत में फँस जाय। हमें तो ऐसे रास्ते चलना है कि साँप मरे और लाठी न
टूटे, इसलिए दरोगाजी ने
आपसे यह अर्ज करने को कहा है कि आपके पास जोखिम की जो चीज़ें हों, उन्हें
लाकर सरकारी खजाने में जमा कर दीजिए। आपको उसकी रसीद दे दी जायगी। ताला और मुहर आप
ही की रहेगी। जब यह हंगामा ठण्डा हो जाय तो मँगवा लीजिएगा।
इससे आपको भी
बेफिक्री हो जायगी और हम भी जिम्मेदारी से बच जायॅगे।
नहीं खुदा न करे, कोई
वारदात हो जाय, तो
हुजूर को तो जो नुकसान हो वह तो हो ही हमारे ऊपर भी जवाबदेही आ जाय। और यह जालिम
सिर्फ माल-असबाब लेकर ही तो जान नहीं छोड़ते ख़ून करते हैं, घर
में आग लगा देते हैं, यहाँ
तक कि औरतों की बेइज्जती भी करते हैं। हुजूर तो जानते हैं, होता है वही जो
तकदीर में लिखा है। आप इकबालवाले आदमी हैं, डाकू
आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। सारा कस्बा आपके लिए जान देने को तैयार है। आपका
पूजा-पाठ, धर्म-कर्म खुदा खुद
देख रहा है। यह उसी की बरकत है कि आप मिट्टी भी छू लें, तो
सोना हो जाय; लेकिन
आदमी भरसक अपनी हिफाजत करता है।
हुजूर के पास मोटर है ही, जो
कुछ रखना हो, उस
पर रख दीजिए। हम चार आदमी आपके साथ हैं, कोई
खटका नहीं। वहाँ एक मिनट में आपको फुरसत हो जायगी। पता चला है कि इस गोल में बीस जवान
हैं। दो तो बैरागी बने हुए हैं, दो
पंजाबियों के भेस में धुस्से और अलवान बेचते फिरते हैं। इन
दोनों के साथ दो बहँगीवाले भी हैं। दो आदमी बलूचियों के भेस में छूरियाँ और ताले
बेचते हैं। कहाँ तक गिनाऊँ, हुजूर
! हमारे थाने में तो हर एक का हुलिया रखा हुआ है।
खतरे में आदमी का
दिल कमजोर हो जाता है और वह ऐसी बातों पर विश्वास कर लेता है, जिन
पर शायद होश-हवास में न करता। जब किसी दवा से रोगी को लाभ नहीं होता, तो
हम दुआ, ताबीज, ओझों
और सयानों की शरण लेते हैं और वहाँ तो सन्देह करने का कोई कारण ही न था। सम्भव है, दरोगाजी
का कुछ स्वार्थ हो, मगर
सेठजी इसके लिए तैयार थे। अगर दो-चार सौ बल खाने पड़ें, तो
कोई बड़ी बात नहीं। ऐसे अवसर तो जीवन में आते ही रहते हैं और इस परिस्थिति में इससे
अच्छा दूसरा क्या इन्तजाम हो सकता था; बल्कि
इसे तो ईश्वरीय प्रेरणा समझना चाहिए। माना, उनके पास दो-दो बन्दूकें
हैं, कुछ लोग मदद करने के
लिए निकल ही आयेंगे, लेकिन
है जान जोखिम। उन्होंने निश्चय किया, दरोगाजी
की इस कृपा से लाभ उठाना चाहिए। इन्हीं आदमियों को कुछ दे-दिलाकर सारी चीजें
निकलवा लेंगे। दूसरों का क्या भरोसा ? कहीं
कोई चीज़ उड़ा दें तो बस ?
उन्होंने इस भाव से
कहा, मानो दरोगाजी ने उन
पर कोई विशेष कृपा नहीं की है; वह
तो उनका कर्तव्य ही था मैंने यहाँ ऐसा प्रबन्ध किया था कि यहाँ वह सब आते तो उनके
दॉत खट्टे कर दिये जाते। सारा कस्बा मदद के लिए तैयार था। सभी से तो अपना
मित्र-भाव है, लेकिन
दरोगाजी की तजवीज मुझे पसन्द है। इससे वह भी अपनी जिम्मेदारी से बरी हो जाते हैं और
मेरे सिर से भी फिक्र का
बोझ उतर जाता है, लेकिन
भीतर से चीजें बाहर निकाल-निकालकर लाना मेरे बूते की बात नहीं। आप लोगों की दुआ से
नौकर-चाकरों की तो कमी नहीं है, मगर
किसकी नीयत कैसी है, कौन
जान सकता है ? आप
लोग कुछ मदद करें तो काम आसान हो जाय। हेड कानिस्टिबिल ने बड़ी खुशी से यह सेवा
स्वीकार कर ली और बोला, ‘हम
सब हुजूर के ताबेदार हैं, इसमें
मदद की कौन-सी बात है ? तलब
सरकार से पाते हैं, यह
ठीक है; मगर देनेवाले तो आप
ही हैं। आप केवल सामान हमें दिखाये जायॅ, हम
बात-की-बात में सारी चीज़ें निकाल लायेंगे। हुजूर की खिदमत करेंगे तो कुछ
इनाम-इकराम मिलेगा ही। तनख्वाह में गुजर नहीं होता सेठजी, आप
लोगों की रहम की निगाह न हो, तो
एक दिन भी निबाह न हो। बाल-बच्चे भूखों मर जायॅ पन्द्रह-बीस रुपये में क्या होता
है हुजूर, इतना तो हमारे लिए
ही पूरा नहीं पड़ता।‘
सेठजी ने अन्दर जाकर
केसर से यह समाचार कहा तो उसे जैसे आँखें मिल गयीं। बोली, भगवान् ने सहायता की, नहीं
मेरे प्राण संकट में पड़े हुए थे।
सेठजी ने सर्वज्ञता
के भाव से फरमाया इसी को कहते हैं सरकार का इंतजाम ! इसी मुस्तैदी के बल पर सरकार
का राज थमा हुआ है। कैसी सुव्यवस्था है कि जरा-सी कोई बात हो, वहाँ
तक खबर पहुँच जाती है और तुरन्त उसकी रोकथाम का हुक्म हो जाता है। और यहाँ वाले
ऐसे बुध्दू हैं कि स्वराज्य-स्वराज्य चिल्ला रहे हैं। इनके हाथ में अख्तियार आ जाय
तो दिन-दोपहर लूट मच जाय, कोई
किसी की न सुने। ऊपर से ताकीद आयी है। हाकिमों का आदर-सत्कार कभी निष्फल नहीं
जाता। मैं तो सोचता हूँ, कोई बहुमूल्य वस्तु
घर में न छोङूँ। साले आयें तो अपना-सा मुँह लेकर रह जायॅ।
केसर ने मन-ही-मन
प्रसन्न होकर कहा क़ुंजी उनके सामने फेंक देना कि जो चीज चाहो निकाल ले जाओ।
'साले झेंप जायेंगे।'
'मुँह में कालिख लग
जायेगी।'
'घमण्ड तो देखो कि
तिथि तक बता दी। यह नहीं समझे कि अंग्रेजी सरकार का राज है। तुम डाल-डाल चलो, तो
वह पात-पात चलते हैं।'
'समझे होंगे कि धमकी
में आ जायेंगे।'
तीन कानिस्टिबिलों
ने आकर सन्दूकचे और सेफ निकालने शुरू किये।
एक बाहर सामान को
मोटर पर लाद रहा था और एक हरेक चीज को नोटबुक पर टॉकता जाता था। आभूषण, मुहरें, नोट, रुपये, कीमती
कपड़े, साड़ियाँ; लहँगे, शाल-दुशाले, सब
कार में रख दिये। मामूली बरतन, लोहे-लकड़ी
के सामान, फर्श आदि के सिवा घर
में और कुछ न बचा। और डाकुओं के लिए ये चीज़ें कौड़ी की भी नहीं। केसर का सिंगारदान
खुद सेठजी लाये और हेड के हाथ में देकर बोले इसे बड़ी हिफाजत से रखना भाई !
हेड ने सिंगारदान
लेकर कहा मेरे लिए एक-एक तिनका इतना ही कीमती है।
सेठजी के मन में एक
सन्देह उठा। पूछा, ख़जाने
की कुंजी तो मेरे ही पास रहेगी ?
'और क्या, यह
तो मैं पहले ही अर्ज कर चुका; मगर
यह सवाल आपके दिल से क्यों पैदा हुआ ?'
'योंही, पूछा
था' सेठजी लज्जित हो
गये।
'नहीं, अगर
आपके दिल में कुछ शुबहा हो, तो
हम लोग यहाँ भी आप की खिदमत के लिए हाजिर हैं। हाँ, हम
जिम्मेदार न होंगे।'
'अजी नहीं हेड साहब, मैंने
योंही पूछ लिया था। यह फिहरिस्त तो मुझे दे दोगे न ?'
'फिहरिस्त आपको थाने
में दरोगाजी के दस्तखत से मिलेगी। इसका क्या एतबार ?'
कार पर सारा सामान
रख दिया गया। कस्बे के सैकड़ों आदमी तमाशा देख रहे थे। कार बड़ी थी, पर
ठसाठस भरी हुई थी। बड़ी मुश्किल से सेठजी के लिए जगह निकली। चारों कानिस्टिबिल आगे
की सीट पर सिमटकर बैठे। कार चली। केसर द्वार पर इस तरह खड़ी थी, मानो
उसकी बेटी बिदा हो रही हो। बेटी ससुराल जा रही है, जहाँ
वह मालकिन बनेगी; लेकिन
उसका घर सूना किये जा रही है।
थाना यहाँ से पाँच
मील पर था। कस्बे से बाहर निकलते ही पहाड़ों का पथरीला सन्नाटा था, जिसके
दामन में हरा-भरा मैदान था और इसी मैदान के बीच में लाल मोरम की सड़क चक्कर खाती
हुई लाल साँप-जैसी निकल गयी थी।
हेड ने सेठजी से
पूछा यह कहाँ तक सही है सेठजी, कि
आज से पच्चीस साल पहले आपके बाप केवल लोटा-डोर लेकर यहाँ खाली हाथ आये थे ? सेठजी ने गर्व करते
हुए कहा 'बिलकुल सही है। मेरे
पास कुल तीन रुपये थे। उसी से आटे-दाल की दूकान खोली थी। तकदीर का खेल है, भगवान्
की दया चाहिए, आदमी
के बनते-बिगड़ते देर नहीं लगती। लेकिन मैंने कभी पैसे को दॉतों से नहीं पकड़ा।
यथाशक्ति धर्म का पालन करता गया। धान की शोभा धर्म ही से है, नहीं
तो धान से कोई फायदा नहीं।'
'आप बिलकुल ठीक कहते
हैं सेठजी। आपको मूरत बनाकर पूजना चाहिए। तीन रुपये से लाख कमा लेना मामूली काम
नहीं है !'
'आधी रात तक सिर उठाने
की फुरसत नहीं मिलती, खाँ
साहब !'
'आपको तो यह सब
कारोबार जंजाल-सा लगता होगा।'
'जंजाल तो है ही, मगर
भगवान् की ऐसी माया है कि आदमी सबकुछ समझकर भी इसमें फँस जाता है और सारी उम्र
फँसा रहता है। मौत आ जाती है, तभी
छुट्टी मिलती है। बस, यही
अभिलाषा है कि कुछ यादगार छोड़ जाऊँ।'
'आपके कोई औलाद हुई
ही नहीं ?'
'भाग्य में न थी खाँ
साहब, और क्या कहूँ !
जिनके घर में भूनी भाँग नहीं है, उनके
यहाँ घास-फूस की तरह बच्चे-ही-बच्चे देख लो, जिन्हें
भगवान् ने खाने को दिया है, वे
सन्तान का मुँह देखने को तरसते हैं।'
'आप बिलकुल ठीक कहते
हैं, सेठजी ! जिन्दगी का
मजा सन्तान से है। जिसके आगे अन्धेरा है, उसके
लिए धान-दौलत किस काम की ?'
'ईश्वर की यही इच्छा
है तो आदमी क्या करे। मेरा बस चलता, तो
मायाजाल से निकल भागता खाँ साहब, एक
क्षण भी यहाँ न रहता, कहीं
तीर्थस्थान में बैठकर भगवान् का भजन करता। मगर करूँ क्या ? मायाजाल
तोड़े नहीं टूटता।'
'एक बार दिल मजबूत
करके तोड़ क्यों नहीं देते ? सब
उठाकर गरीबों को बॉट दीजिए। साधु-सन्तों को नहीं, न
मोटे ब्राह्मणों को बल्कि उनको, जिनके लिए यह
जिन्दगी बोझ हो रही है, जिसकी
यही एक आरजू है कि मौत आकर उनकी विपत्ति का अन्त कर दे।'
'इस मायाजाल को तोड़ना
आदमी का काम नहीं है, खाँ
साहब ! भगवान् की इच्छा होती है, तभी
मन में वैराग्य आता है।'
'आज भगवान् ने आपके
ऊपर दया की है। हम इस मायाजाल को मकड़ी के जाले की तरह तोड़कर आपको आजाद करने के लिए
भेजे गये हैं। भगवान् आपकी भक्ति से प्रसन्न हो गये हैं और आपको इस बन्धन में नहीं
रखना चाहते, जीवन-मुक्त कर देना
चाहते हैं।'
'ऐसी भगवान् की दया
हो जाती, तो क्या पूछना खाँ
साहब !' 'भगवान् की ऐसी ही दया है सेठजी, विश्वास
मानिए। हमें इसीलिए उन्होंने मृत्युलोक में तैनात किया है। हम कितने ही मायाजाल के
कैदियों की बेड़ियाँ काट चुके हैं। आज आपकी बारी है।'
सेठजी की नाड़ियों
में जैसे रक्त का प्रवाह बन्द हो गया। सहमी हुई आँखों से सिपाहियों को देखा। फिर
बोले, आप बड़े हँसोड़ हो, खाँ
साहब ?
'हमारे जीवन का
सिद्धान्त है कि किसी को कष्ट मत दो; लेकिन
ये रुपये वाले कुछ ऐसी औंधी खोपड़ी के लोग हैं कि जो उनका उद्धार करने आता है, उसी
के दुश्मन हो जाते हैं। हम आपकी बेड़ियाँ काटने आये हैं; लेकिन अगर आपसे कहें
कि यह सब जमा-जथा और लता-पता छोड़कर घर
की राह लीजिए, तो
आप चीखना-चिल्लाना शुरू कर देंगे। हम लोग वही खुदाई फौजदार हैं, जिनके
इत्तलाई खत आपके पास पहुँच चुके हैं।'
सेठजी मानो आकाश से
पाताल में गिर पड़े। सारी ज्ञानेन्द्रियों ने जवाब दे दिया और इसी मूर्च्छा की दशा
में वह मोटरकार से नीचे ढकेल दिये गये और गाड़ी चल पड़ी।
सेठजी की चेष्टा जाग
पड़ी। बदहवास गाड़ी के पीछे दौड़े हुजूर, सरकार, तबाह
हो जायॅगे, दया कीजिए, घर
में एक कौड़ी भी नहीं है...
हेड साहब ने खिड़की
से बाहर हाथ निकाला और तीन रुपये जमीन पर फेंक दिये। मोटर की चाल तेज हो गयी।
सेठजी सिर पकड़कर बैठ
गये और विक्षिप्त नेत्रों से मोटरकार को देखा, जैसे कोई शव
स्वर्गारोही प्राण को देखे। उनके जीवन का स्वप्न उड़ा चला जा रहा था।
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